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बुधवार, 1 जून 2022

उलझनों में दिल यूं पड़ा

 ख्वाबों का सिलसिला 

जब कभी चल पड़ा

मैं ज़मीन पे चलूं

आसमां में उडूं

उलझनों में ये दिल यूं पड़ा...


ख्वाहिशें थी मुझे तुम 

जहां जब मिलो

हाथ थामे मुझे तुम 

वहां ले चलो 

दिन जहां पर ढले

शब जहां पर जगे

उस क्षितिज पे हो एक घर मेरा ... 

ख्वाबों का सिलसिला जब कभी चल पड़ा


कहकशां हूं सितारा तुम 

मुझ में पलो

हूं धनक आओ रंगो में 

मेरे ढलो

स्याह से रतजगे

आंखों में अब पले 

तेरे  शानो पे हो  सर मेरा ....

उलझनों में ये दिल यूं पड़ा...


ख्वाबों का सिलसिला 

जब कभी चल पड़ा

उलझनों में ये दिल यूं पड़ा...


11 टिप्‍पणियां:

  1. ख्वाबों का सिलसिला

    जब कभी चल पड़ा

    उलझनों में ये दिल यूं पड़ा...सच, ये सिलसिले न रुकते हैं न रुकने देते हैं|

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बजा फरमाया आपने...यही तो इश्क़ है मोहब्बत है ...आपकी इनायत के लिए शुक्रिया

      हटाएं
  2. आपके ब्लॉग पर मेरी कृतियों का समावेश कर आपने समय समय पर मेरा हौसला और मान बढ़ाया है ...इसके लिए मैं हृदय से आपका आभार व्यक्त करती हूं

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (03-06-2022) को चर्चा मंच      "दो जून की रोटी"   (चर्चा अंक- 4450)  (चर्चा अंक-4395)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'    

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  4. ख्वाबों का सिलसिला

    जब कभी चल पड़ा

    मैं ज़मीन पे चलूं

    आसमां में उडूं

    उलझनों में ये दिल यूं पड़ा..

    .सुन्दर ! अति सुन्दर ! भावपूर्ण !

    जवाब देंहटाएं
  5. सिलसिला चलता रहे
    खूबसूरत रचना
    वाह

    जवाब देंहटाएं
  6. कहकशां हूं सितारा तुम

    मुझ में पलो

    हूं धनक आओ रंगो में

    मेरे ढलो
    बहुत सुंदर सृजन ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आप सभी का ये प्रोत्साहन ही बेहतर लिखने के लिए प्रेरित करता है ... बहुत आभार सर

      हटाएं