ईशोपनिषद के प्रथम
मन्त्र के द्वितीय भाग ..”तेन त्यक्तेन भुंजीथा..." का
काव्य-भावानुवाद......
सब कुछ ईश्वर की ही माया,
तेरा मेरा कुछ भी नहीं है |
जग को अपना समझ न रे नर !
तू तेरा सब कुछ वह ही है |
पर है कर्म-भाव आवश्यक,
कर्म बिना कब रह पाया नर |
यह जग बना भोग हित तेरे,
जीव अंश तू, तू ही
ईश्वर |
उसे त्याग के भाव से भोगें,
कर्मों में आसक्ति न रख कर|
बिना स्वार्थ, बिन फल की
इच्छा,
जो जैसा मिल जाए पाकर |
कर्मयोग है यही, बनाता -
जीवनमार्ग सहज, शुचि, रुचिकर |
जग में रहकर भी नहिं जग में,
होता लिप्त कर्मयोगी नर |
पंक मध्य ज्यों रहे जलज दल,
पंक प्रभाव न होता उस पर |
सब कुछ भोग-कर्म भी करता,
पर योगी कहलाये वह नर ||
THE FIRST ALPHABET OF ISHAWARA IS I ,i.e ME THE SELF .THE FIRST TWO LETTERS "IS"
जवाब देंहटाएंMEANS ALL ISNESS BELONGS TO THE GOD .
ये संसार ईश्वर का है तेरा तो तू भी नहीं है ,तू भी तो संसार में ही है ईश्वर से अलग कहाँ है इसलिए जितना ज़रूरी है उतना ले त्याग भावना के साथ।
बहुत सुन्दर भावानुवाद। एक श्रेष्ठ कार्य कर रहें हैं आप इसका पुण्य आपके खाते में जाएगा। जयश्रीकृष्णा।
अच्छा विश्लेषण है ...शर्मा जी...धन्यवाद.....
जवाब देंहटाएंबहुत उत्कृष्ट और प्रभावी भावानुवाद....
जवाब देंहटाएंधन्यवाद कैलाश जी.......
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