छ्पाना एक हिन्दी पुस्तक का....
कहते हैं प्रकाशन एक विधा है जैसे लेखन एक विधा है।मैं कहता हूँ प्रकाशन एक कर्म काण्ड है।पाण्डुलिपि का प्रकाशन कराते कराते अपना ही पिण्डदान बाक़ी रह जाता है।नवोदित व्यंग्यकार यह रहस्य समझते होंगे।लेखन आसान है-लेखनी ली ,अल्लम-गल्लम लिखा,दस बीस पन्ने रंग दिए पाण्डुलिपि तैयार। परन्तु प्रकाशन -ना बाबा ना।10-20 प्रकाशकों को टोपी पहनाते हैं तो कोई एक टोपी पहनता है बमुश्किल।[पाठकों को सूचनार्थ- सिर्फ़ मेरे प्रकाशक को छोड़ कर जो लेखक को ही टोपी पहनाता है] हिन्दी के व्यंग्य लेखक को 2-ही चिन्तायें सताती रहती हैं ।एक-बड़ी होती हुई बेटी ’रचना’ और दूसरी तैयार होती हुई पाण्डुलिपि ’रचना’।अगर दोनो प्रकाशित न हुई तो आजीवन कुँवारी रह जायेंगी और जग हँसाई ऊपर से।
वही हुआ ,जिसका भय था । रचना तैयार हो गई।अब एक सुयोग्य प्रकाशक ’वर’ की खोज करनी थी।सोचा समाचार पत्र के माध्यम से वैवाहिक कालम में एक विज्ञापन दे दूँ -"प्रकाशक चाहिए अपनी रचना के प्रकाशन के लिए ।पन्ने 200 ,वज़न आधा किलो,डिमाई साईज ,हार्ड बैक। इच्छुक प्रकाशक अपना ’बायोडाटा’ भर कर प्रकाशित सूची के साथ अपना फोटो भेंजे। ISBN पंजीकृत प्रकाशको को प्राथमिकता दी जायेगी।विचारधारा ’नो-बार’।वामपंथी .दक्षिणपंथी ,नरमपंथी ,गरमपंथी प्रकाशको पर विचार किया जा सकता है। कुंजी ,गेस पेपर ,श्योर शाट सक्सेस पेपर प्रम्पलेट पेपर ,मस्त जवानी गरम हसीना छापने वाले प्रकाशक कृपया क्षमा करेंगे।"--मगर जनाब अगर विज्ञापन से ही प्रकाशक मिल जाते तो हम इसे ’कर्मकाण्ड ’क्यों कहते।
ये प्रकाशक भी कुछ विशेष प्रकार के प्राणी होते हैं। पिछले व्यंग्य संग्रह "शरणम श्रीमती जी" -में इन प्राणियों पर कुछ प्रकाश डाला था। लिखा था कि किस प्रकार आंख के अन्धे-गांठ के पूरे ...एक प्रकाशक ने उक्त ्व्यंग्य संग्रह छापने का जोखिम उठाया था कि आज तक न उबर सके।यह अलग बात है कि उक्त प्रकाशक महोदय ने न अपनी गांठ खोली न गठरी।यही क्या कम है कि बिना रायल्टी के छाप दिया।उनकी मान्यता है कि हिन्दी के सच्चे सेवक को न गाँठ देखनी चाहिए न गठरी। हिन्दी का लेखक तो साधु-सन्त होता है।गाँठ गठरी देखने का काम अंग्रेजी लेखकों का है। उनके इस गुरू-ज्ञान से मैं सहम गया ।कहीं उनकी दृष्टि मेरी गठरी पर तो नहीं है ?
। हालाँकि कुछ लेखक बड़े घाँघ होते हैं। दिन के उजाले में कहते हैं -"अरे मैं ! मेरी पुस्तक के लिए तो प्रकाशक मेरे दरवाजे पर लाईन लगाये खड़े रहते है कि पाण्डुलिपि तो बस आप मुझे ही दे दीजियेगा फिर देखिए कि कैसी आप की सेवा करता हूँ। अपना पैसा लगा कर पुस्तक छपवाना । राम राम राम कैसा कलियुग आ गया।" मगर रात के अधेरे में वही लेखक प्रकाशक के दरवाजे दरवाजे हाज़िरी देते हैं।खैर जनाब, मैं स्वयं ही एक सुयोग्य प्रकाशक की तलाश में निकल पड़ा-अपनी ’रचना’ के लिए।यह काम तो करना ही था ।खद्दर का कुर्ता सिलवाया ,पायजामा बनवाया।बाल बढ़ाये ,कुछ दाढ़ी बढ़ाई । कंधे पर झोला लटकाया ,आंखों पर मोटा ऐनक चढ़ाया ....।बम्बईया फ़िल्मवालोंने यही वेश भूषा ्निर्धारित की है बेचारे हिन्दी लेखक की॥इसी ’गेट अप" में फ़िल्म चुपके चुपके में हीरो पर्दे पर आताहै और शुद्ध हिन्दी बोलता है तो हास्य पैदा होता है-तालियाँ बजती हैं। यानी हिन्दी के मज़ाक से भी कुछ न कुछ कमाया जा सकता है।इस वेशभूषा में प्रकाशक के द्वार जायेंगे तो अभीष्ट प्रभाव पड़ेगा।अन्यथा क्या समझेगा कि कैसे कैसे लोग आ गये है आजकल हिन्दी व्यंग्य लेखन में।अन्तर मात्र इतना है कि एक नवोदित प्रकाशक किसी स्थापित लेखक के द्वार पर खड़ा रहता है और एक नवोदित लेखक प्रकाशक के द्वार पर।इसी लिए कहते हैं कि लेखक और प्रकाशक का चोली-दामन का साथ होता है । अब यह न पूछियेगा कि ’चोली’ कौन है?
पाण्डुलिपि बगल मे दबाये निकल पड़ा।चलते चलते एक प्रकाशक नुमा व्यक्ति दिखाई पड़े। सज्जन दुकान खोल कर अभी बैठे ही थे ,सोचा इन्ही से पूछते हैं।प्रश्नवाचक चिह्न की तरह मैं खड़ा हो गया । मेरे कुछ बोलने के पूर्व ही वह सज्जन बोल उठे--" आगे बढ़ो न बाबा ! अभी धन्धे का टैम है"
" मैं भिखारी नहीं ,लेखक हूं"- मैने अपना परिचय दिया
"हिन्दी में लिखते हो ? व्यंग्य लिखते हो-तो एक ही बात है"
मेरा भी स्वाभिमान जगा। लेखक का तिरस्कार सह सकता हूँ व्यंग्य का अपमान सह सकता हूँ मगर हिन्दी का नहीं\हिन्दी का सेवक जो हूं
"आप जैसे प्रकाशक ही हिन्दी का बंटाधार किए बैठे हैं-नवोदित लेखकों को प्रोत्साहन नहीं देते।-मैने कहा
जाने क्या सोच कर वह उठ खड़े हुए । मुझसे भी उच्च स्वर आवृति में कहा-" गुस्सा करने को नी\ जास्ती मचमच करने को नी। देखता नहीं प्रकाशन से ही ’माल’ खड़ा किया है । मालदार प्रकाशक हूँ -मालपानी। अब मैने ’चिल्लर’ देना बन्द कर दिया है । अरे ! आगे बढ़ो नी बाबा"
"आप को कला की पहचान नहीं ,कलाकार की पहचान नहीं।मात्र ’माल’ की पहचान है । नाम है -मालपानी ,आंखो में पानी नहीं।अरे हम लेखक लिखते हैं आत्मा से..."-मैने भी गर्जना की
"आत्माराम एन्ड सन्स" अगली गली में रहते हैं--वहीं जाओ न बाबा !वहीं आईना दिखाओ ...म्हारो माथा खाओ नी..."-अरे रामू ! ज़रा इन भाई साहब को ....!’
इस से पहले कि रामू मुझे बाहर का रास्ता दिखाता मैने स्वयं ही वहाँ से चला जाना उचित समझा। हिन्दी का लेखक जो हूँ।
मैं आगे बढ़ा।देखा कि एक किताब की दुकान में एक हृष्ट पुष्ट सज्जन अपने 4-5 हट्टे कट्टे बलिष्ठ साथियों से घिरे हुए हैं।साहित्य पर चर्चा चल रही है ।हास-परिहास हो रहा है। हिन्दी लेखकों की टाँग खिंचाई हो रही है। हिन्दी साहित्य पर चिन्तन-मनन हो रहा है।इनका अपना दरबार है इनके अपने लेखक हैं इनका अपना गुट है इनके अपने आलोचक हैं इनके अपने समीक्षक हैं इनके अपने लठैत है ..वक़्त ज़रूरत हिन्दी सेवकों की सेवा भी कर सकते है जो इनके गुट में नहीं हैं इनके अपने प्रकाशक हैं --कहने का मतलब यह कि इनका अपना खेमा है और अपनी खेमाबन्दी । हिन्दी वाले इसे ’विचार धारा के स्कूल’ कहते है ,हमें तो गिरोह लगता है बोतल तो कोका कोला-पेप्सी की लग रही है भीतर क्या भरा है कहा नहीं जा सकता। शरीर संरचना से तो समर्थ प्रकाशक लगता है। मैने अपनी पाण्डुलिपि दिखाई ,परिचय दिया...संग्रह की संक्षिप्त रूप-रेखा बताई ....
अचानक...
हा! हा! हा! अठ्ठहास करते हुए उक्त सज्जन ने कहा-"अकेले आये हो? अयं। तेरा जोड़ीदार किधर है रे ?"
इस अचानक अठ्ठहास से मैं घबरा गया । अभी तो यह आदमी कुछ प्रकाशकनुमा दिख रहा था अब इसमें ’गब्बर सिंह’ कहां से आ गया?मैं समझ गया मेरा जोड़ीदार ’मिसरा जी’ की बात कर रहा है ।मेरे पिछले व्यंग्य संग्रह में मिश्रा जी ने प्रकाशन-विपणन-समीक्षा करवाने में नि:शुल्क व नि:स्वार्थ मदद की थी ।[पाठकगण कृपया ’शरणम श्रीमती जी -व्यंग्य संग्रह के व्यंग्य चलते चलते का सन्दर्भ लें]
" बड़ी जान है रे तेरी कलम में ..किस पेन से लिखता है अयं?"- खैनी ठोकते हुए उक्त सज्जन ने कहा -" पिछली बार प्रकाशकों पर व्यंग्य तुमने ही लिखा था? क्या सोच कर लिखा था कि सरदार [प्रकाशको का] बड़ा खुश होगा ---सरदार तुम्हें रायल्टी देगा...आ थू ! अरे वो कालिया ! कितना किताब छापते हैं रे एक साल में हम...?
"सरदार 100-200"
"बरोबर ! और यह 100-200 किताब हम यूँ ही नही छापते । सरकारी ठेका लेते है । जब ’गब्बर प्रकाशन" किताब छापता है तो दूर दूर तक प्रकाशक माथा पकड़ लेता है ....गब्बर का नाम सुन कर...आ थू"
मै थर थर काँपने लगा। कहाँ आ कर फँस गये पुस्तक छपाने के चक्कर में ।जान बची तो बहुत प्रकाशक मिलेंगे।जान नहीं तो लेखन क्या -प्रकाशन क्या?
"सरदार ! मैं चलता हूँ"-मैने पान्डुलिपि उठा ली।
"हा! हा! हा! -जो डर गया सो मर गया।हम तुम्हारा इन्साफ़ करेगा।तुम को साफ करेगा। बरोबर करेगा। अरे ! ओ साम्भा ! ज़रा उठा तो कलम और लगा तो निशाना...."- उसने आवाज़ दी...और पिच्च से मुँह की खैनी थूक दी [मेरे ऊपर नहीं] लगता है सबको एक ही छत के नीचे बैठा रखा है ---लेखक---समीक्षक---आलोचक--प्रकाशक--पुस्तक विक्रेता...। सरकारी शब्दावली में इसे "एकल-खिड़की"-सुविधा कहते हैं
वहां से जो भागा तो सीधे घर आकर ही दम लिया ...जान बची लाखों पाये...लौट के बुद्धू घर को आये ..लड़ने का माद्दा छोड़ कर आये ...
[----जारी है]
आनन्द पाठक
09413395592
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मंगलवार, 16 दिसंबर 2014
छपाना एक एक हिन्दी पुस्तक का....[क़िस्त 1] व्यंग्य
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (17-12-2014) को तालिबान चच्चा करे, क्योंकि उन्हें हलाल ; चर्चा मंच 1829 पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'