एक पतंग हूँ
किसी ने मुझे उकसाया
और आसमान पर उड़ाया
उड़ता रहा खुले आसमान पर
फिर एक पतंग मिली
जो मेरी तरहां ऊँची उड़ान पर थी
शायद ढूंडती होगी अपने प्यार को
चाहत होगी मेरी तरहां उसे भी
कोई उसके जैसा मिले
जिसके साथ वोह अपनी उड़ान
मदहोशियों में उड़ सके
अरमानों की लहर लिये
खुली हवाओं की तरंग में
खुली हवाओं की तरंग में
कुछ पास आये
तो ख्वाईशों के तूफ़ान ने
हवा के झोंके से मजबूर किया
और हम एक दुसरे के आलिंगन में आ घिरे
मेरी डोर उसकी डोर में आ लिपटी
जो एहसास हमने फिर जिये
चाहतों के जाम पिये
कोई क्या जाने
चाहा कुछ पल यूँ हीं जी लें
मगर डोर किसी और के हाथ थी
और उनको जल्दी थी हमें काटने की
अपनी जीत की
हमें लूटने की
वोह क्या जानें
कि कटने की पीड़ा क्या होती है
कि कटने की पीड़ा क्या होती है
अपने प्यार से बिछुड़ने की
टीस क्या होती है
टीस क्या होती है
हर कोशिश की जुदा न होने की
मगर क्या करते
किसीने ऐसी खींच लगाई डोर में
किसीने ऐसी खींच लगाई डोर में
दोनों कट कर आलिंगन से जुदा हो गये
फिर न जाने उसको किसने लूटा
और मैं बेसहारा उड़ते
गिरते पड़ते
झाड़ियों में जा अड़ा
टूट गए मेरे अस्थी पंजर
क्यों सोचें वह मेरा
वोह तो अपनी जीत की ख़ुशी में
फूले नहीं समा रहे होंगे
वोह जीत जो दूसरों को काट कर
उनके अरमानों को मसल कर
जीती जाये क्या सच में जीत है
वोह जीत जो दूसरों को काट कर
उनके अरमानों को मसल कर
जीती जाये क्या सच में जीत है
....इंतज़ार सेठी
शास्त्री जी प्रोत्साहन के लिये धन्यवाद् !...मंगलकामनाएँ
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