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शनिवार, 20 दिसंबर 2014

छपवाना एक हिन्दी पुस्तक का.....[आखिरी क़िस्त-2] व्यंग्य



[ गतांक से आगे--- पिछले अंक में आप ने पढ़ा कि किस तरह गब्बरनुमा प्रकाशक से या प्रकाशकनुमा गब्बर से मेरा साबका हुआ कि वहाँ से जो भागा तो घर आकर ही दम लिया जान बची लाखों पाये...लौट के बुद्धू घर को आये ..लड़ने का माद्दा छोड़ कर आये । अब आगे पढ़िए.............]

लगता है पुस्तक प्रकाशन मेरे बस का नहीं।जिन प्रकाशकों को पत्र लिखा ,सबने विनम्रता से जवाब दिया -’...आप की रचना सर्वश्रेष्ठ है ,आशा है कि आप की ये रचना हिन्दी साहित्य को समृद्ध करेगी...आप से हिन्दी जगत को बहुत संभावनायें हैं... हमें खेद है कि आप की इस पुस्तक का प्रकाशन हम अभी नहीं कर सकते कारण कि हम अभी अन्य श्रेष्ठ रचनायें यथा-डब्बे में ख़ून...ख़ूनी खंज़र..नंगी लाश..जैसी कालजयी रचनायें और कृतियों के प्रकाशन में व्यस्त हैं आप अन्यथा न लेंगे-सखेद सधन्यवाद।
मैने पाण्डुलिपि तो भेजी नहीं थी ।मात्र शीर्षक देख कर ही रचना की श्रेष्ठता समझ लेने वाले प्रकाशक धन्यवाद के पात्र ही नहीं ,महापात्र होते हैं।कुछ-कुछ पाठक तो पुस्तक कवर पर प्रकाशित मनभावन लुभावन चित्र देख कर ही रचना की उष्णता का आकलन कर लेते हैं। ऐसे पाठक और प्रकाशक दोनो ही दुर्लभ प्राणी होते हैं
आशा बलवती राजन !सोचा एक बार पुन: प्रयास करना चाहिए।अगर भगवान ने मुझे बनाया है तो कहीं न कहीं मेरे प्रकाशक को भी बनाया होगा।आवश्यकता है तो मात्र ढूँढने की।पुन: अपनी पाण्डुलिपि लेकर निकल पड़ा।अपना व्यंग्य संग्रह लेकर एक प्रकाशक के पास गया। सर्वप्रथम तो उन्होने मुझे ऊपर से लेकर नीचे तक आद्योपान्त इस तरह देखा जैसे मैं कोई लेखक नहीं तिहाड़ जेल से छूट कर आया हूँ। फिर पूछा-"नाम?"
"अच्छा तो आप ही हैं जिसने "चलते चलते .." व्यंग्य में हम प्रकाशकों की खिल्ली उड़ाई थी? माफ़ करना बाबा ,हम चालू-चलन्त.लेखकों की कृतियाँ नहीं छापते।
 । उन्होने "चलन्त" शब्द का प्रयोग ऐसे किया जैसे मैं किसी नगर पालिका का "चलन्त" कूड़ादान लिए फिर रहा हूँ । उनके चलन्त शब्द में मुझे "घुमन्त" प्रकाशन का ’अन्त’ शब्द का बोध हुआ। हे भगवान ! इस प्रकाशक को थोड़ी से सदबुद्धि भी दे ।मैं बाहर निकल आया
किसी साहब ने बज़ा फ़र्माया है
मैं इसे शोहरत कहूँ या अपनी रुस्वाई कहूँ
मुझ से पहले उस गली में मेरे अफ़साने गए

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मैं अपनी औक़ात समझ गया ।नवोदित लेखकों को ये सम्पादक एवं प्रकाशक औकात ही बताते हैं। परन्तु यह धरा अभी प्रकाशकों से विहीन नहीं हुई है ।सभी तो ’गब्बर’ खानदान से ताल्लुक नहीं रखते होंगे ? एक प्रकाशक महोदय मिल ही गए।दुकान खोल कर बैठे ही थे।स्पष्ट नहीं हो पा रहा था कि वह पुस्तक विक्रेता हैं कि प्रकाशक।शकल से दोनो ही का भाव का बोध हो रहा था। मेरी ही तरह खद्दर का कुर्ता व पायजाम पहने ,ऊपर से जवाहर जैकेट के ऊपर कंधे पर एक उत्तरीय। शकल से किसी नगरपालिका स्कूल के मास्टर ज़्यादा और प्रकाशक कम लग रहे थे॥ जब से सुना है कि कुछ घाघ प्रकाशक लेखकों की टोपियाँ उछाल देते हैं ,तब से मैने टोपी पहनना छोड़ दिया। न रहेगी टोपी- न उछलेगी पगड़ी।
मैने अपना परिचय दिया ।अपना दर्द समझाया। अपनी विवशता बताई। जब मैने ’गब्बर सिंह’ वाली घटना बताई तो द्रवित हो गए।आँखों में आँसू भर लिए। हृदय में वात्सल्य भाव उमड़
आया। बोले-" होता है बेटा ! होता है ऐसा।कुछ कुछ प्रकाशक होते हैं ऐसे । वे सरकारी प्रकाशक होते हैं ठेकेदार प्रकाशक होते हैं। उनको हिन्दी के उत्थान पतन विकास से कुछ नहीं लेना देना। वो हमारे जैसे नहीं होते कि हिन्दी और हिन्दी के उत्थान के लिए सारा जीवन होम कर दिया ,अर्पित कर दिया।अपनी जमा-पूँजी प्रेस में लगा दी और जवानी भी।हमें हिन्दी की सेवा करनी थी एक सच्चे सेवक की तरह...। चिन्ता नहीं करो बेटा ! देर से आये हो मगर दुरुस्त आये सही जगह आए ।समझो कि तुम्हारी तलाश खत्म ...तुम्हारी चिन्ता अब मेरी चिन्ता हो गई...नो लुक बियान्ड फ़र्दर।एक काम करो...।अपनी पाणडुलिपि छोड़ जाओ..पढ़ लूंगा...।एक सप्ताह बाद आ जाना ...बता दूँगा।

मैं उनके इस वात्सल्य प्रेम से अभिभूत हो गया ।मन श्रद्धा से भाव विभोर हो उठा\ सोचने लगा -कितना भला प्रकाशक है \विचारों से यह ’भारतेन्दु’ काल का लग रहा है । ऐसे ही प्रकाशकों के दम से तो यह हिन्दी अभी टिकी हुई है वरना ’कार्पोरेट प्रकाशक तो कब का.....

मैं  धन्यवाद कह  बाहर निकल आया।
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एक सप्ताह बाद
"आओ बेटा ! आओ ! बैठो।मैने पाण्डुलिपि पढ़ी।तुम अपने हो।तुम्हारा कष्ट देखा नहीं जा रहा है। बुरा न मानना।  व्यंग्य श्यंग लिखना छोड़ दो।इस में कुछ नहीं रखा है।अमूमन व्यंग्य-श्य़ंग्य तो कोई पढ़ता नहीं ।व्यंग्य से ज़माने को नहीं बदल पाओगे।आईना दिखाने से ज़माना नहीं बदलता ,सिर्फ़ हँसता है। पिछली बार छपवाया था तो क्या हुआ? बिकी? एक भी बिकी? गोदामों में सड़ रही है।धूप दिखाने का खर्चा सो अलग।अरे भइया ,मेरी मानो तो "लालू-चालीसा’ लिखो.."मोदी महात्म" लिखो.."राहुल सप्तसती"- लिखो...कुंजी लिखो..गेस पेपर लिखो श्योर शाट पेपर लिखो..परीक्षा पास करने के 101 तरीके लिखो...अच्छे अंक कैसे प्राप्त करे लिखो...अभिनन्दन पत्र लिखो..स्वागत गान लिखो..बड़ी माँग है इनकी आजकल । लिखने वाला मालामाल ्छापने वाला मालपानी..गंगा बह रही है हाथ धो लो..वरना व्यंग्य लिखते रहोगे तो लँगोटी भी उतर जायेगी..। भई .अगर तुम हमारे प्रकाशन के लिए लिखो तो कुछ हम भी माल-टाल बना लें। 50%-50% / वरना तो यह व्यंग्य-श्य़ंग्य तो निठ्ठलों के चोचले होते है --न लीपने के काम का..न पाथने के काम का।बेटा ! तू जानता नहीं ,’--लिखने से ज़्यादा छाप कर बेंचने में पापड़ बेलने पड़ते हैं..सरकारी कार्यालयों के ’सुविधा-शुल्क’ लाइब्रेरी में ठेलने का खर्च अलग ,कागज-स्याही का भी खर्चा नहीं निकलता..फिर पुस्तक मेले में खोमचे लगा लगा कर बेचना पड़ता है।
-" तो क्या व्यंग्य पेड़ पर उगते हैं? आप क्या जानो कि व्यंग्य लिखने में कितना ’रिस्क’ होता है कितने पापड़ बेलने पड़ते है कि बेचारा लेखक अन्त मे अचार-पापड़ बेचने लग जाता है"-मैने अपना दिव्य-ज्ञान बघारा ।
स्पष्ट था मैने अपनी पाण्डुलिपि उठाई और बाहर आ गया।

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मन विद्रोह कर उठा।जो भी हो-अब तो यह संग्रह छपवा कर ही रहना है ।यही संघर्ष है ,यही साधना है यही तपस्या है। यही हिन्दी सेवा है।
एक प्रकाशक के कार्यालय गया ।बड़ा नाम सुना था।ऊँची दुकान थी पकवान देखा नहीं था। सोचा पकवान भी देख लूं।अभी उनके कक्ष में घुसा ही था कि अपने चश्मे के ऊपर से घूरते हुए देखा और कहा-"अरे बाबा ! तू फिर इधर आ गया। पिछ्ली बार बोला न तेरे कू .बोला न, इधर कू जास्ती आने का नी। तू ही  ’चलते चलते ....’ लिखा था न ? तो फिर रुक क्यूँ गया? आगे चलो न बाबा। हम तुम को बोला न ,हम व्यंग्य-श्यंग्य नही ्छापता । तू जास्ती इधर को आयेगा तो पुलिस वाला भी इधर कू आयेगा...माफ़ कर न मेरे बाप....।
बाद मेम ज्ञात हुआ कि उक्त प्रकाशक महोदय सचित्र रंगीन कहानियाँ , रंगीली जवानी..रंगीन रातें वयस्कों के लिए छापते हैं ।मुद्रक प्रकाशक का पता नहीं छापते ,गुप्त रखते हैं। हिन्दी की गुप्त सेवा करते हैं। इनकी छपी किताबें शहर की हर गली-खोली -नुक्कड़ पर गुप्त रूप से मिलती हैं जिसे शहर के लौण्डे छुप छुपा कर पढ़ते हैं । बड़े बड़े साहब लोग रात को बेडरूम में अकेले पढ़ते हैं। पैसे वाले प्रकाशक है बस पुलिस से डरते हैं।
 मन भिन्ना गया।
थक हार कर एक मा‘ल में घुस गया।किसी प्रकाशक का था। प्रवेश हाल में एक सुन्दर से रिशेप्स्निस्ट ।चेहरे पर सदाबहारी प्लास्टिक मुस्कान.एक ही जुमला-व्हाट आइ कैन हेल्प यू ,सर !? भीतर एक बड़ा सा चमकता हुआ आफ़िस ।मार्ब॒ल की फ़्लोर। वातानुकूलित कक्ष ।कक्ष में एक बड़ा टेबुल ,बगल में एक बड़ा सोफ़ा।सोफ़ा के बगल में एक साइड टेबुल ..और उस पर कुछ पत्र-पत्रिकाये। टेबुल के उस तरफ़ एक घूर्णनदार कुर्सी। कुर्सी पर बैठा एक नवयुवक । सूट पहने टाई लगाये।आँखो पर एक बड़ा सा काला गागल्स चढ़ाए।किसी बड़ी कम्पनी का मैनेज़र लग रहा था । मैं संकोच में पड़ गया ,लगता है ग़लत जगह आ गया हूँ\यह सेन्ट्रल माल या स्पेन्सरमार्ट तो नही? यहाँ किताबें कहाँ छपती होंगी? बाहर निकलने वाला ही था कि मैनेज़र ने पूछ लिया
-" यस ! प्लीज़ ! मै आप की क्या सेवा कर सकता हूँ?"
-’ नहीं नहीं कुछ नहीं बस यूँ ही...."
-"प्लीज़ ! आप बैठें’-मैंउसके आग्रह पर सोफ़े पर बैठ गया । इसी बीच एक सुन्दर से कन्या बड़े ही करीने से एक ट्रे में कुछ पेय पदार्थ ले आई। एक हल्की सी मुस्कान बिखेरते हुए बोली-"प्लीज़"।
 बिहारी होते तो एक दोहा लिख देते मैं था तो मैं संकोच में पड़ गया।अब उठ कर भाग भी नहीं सकता। पेय पीने के बाद कुछ तनाव कम हुआ।
-" जी बतायें ! मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूँ "- उक्त व्यक्ति ने पुन: पूछा
मैने अपनी सारी बात बताई । अपनी व्यथा समझाई ।कथा सुनाई। मैनेज़र ने कहा -" नो प्रोब्लेम" काम हो जायेगा ।आप की किताब छप जायेगी। बस आप पैकेज़ सलेक्ट कर लें । मिनी ! सर को वह बुकलेट दे दो"
मैने ’पैकेज़’ को ’पैकेट’ समझा । हिन्दी का लेखक हूँ सम्भवत: ’रायल्टी’ का पैकेट होगा !मिनी बिटिया मुझे ’बुकलेट’ थमा गई
पढ़ा तो ’लेट’[स्वर्गीय] होते होते बचा।वह ्पैकेज़-बुकलेट’ ्क्या था ..समझिए कि ’पाकेट-कर" [पाकेट मार नहीं] था। सुधी पाठकों की ज्ञान वर्धनार्थ संक्षेप में प्रकाश डाल रहा हूँ। मैं तो नसानी तुम ना नसैहों।
सिल्वर पैक योजना : यानी मात्र पुस्तक छापने के 20,000/- रूपये।इस पैकेज़ में मात्र 500 प्रतियाँ ही छापी जायेंगी। 11-लेखकीय प्रतियाँ मुफ़्त।पुस्तक यदि ’हार्ड बाऊण्ड’ में छपवानी है तो 2000 रुपये अतिरिक्त प्रभार लिया जायेगा । सभी टैक्स सहित। दो पुस्तके एक साथ छपवाने में तीसरी पुस्तक में 50% की छूट ।यह पैकेज़ उक्त पैकेज का विस्तार स्वरूप है ।फ़िक्स्ड रेट। रेट निगोशियेबुल नहीं। भुगतान चेक के माध्यम से स्वीकार्य।पैन कार्ड की कापी लगाना अनिवार्य।

सिल्वर पैक + योजना :-वस्तुत यह योजना सिल्वर पैक योजना का विस्तार रूप है। इसमे मनमाफ़िक समीक्षा कराने का अतिरिक्त शुल्क।स्थानीय  दो पत्रों में समीक्षा लिखवाने का शुल्क अलग। राज्यस्तरीय अखबारों में समीक्षा प्रकाशित करवाने का शुल्क अलग।टटपुँजिए समीक्षकों से समीक्षा करवाने पर शुल्क में छूट देने पर विचार किया जा सकता है।कृपया मोल तोल कर इस संस्था को शर्मिन्दा न करें।

विशेष योजना : पुस्तक को विवाद में लाने हेतु अतिरिक्त चार्ज़ लगेगा। प्रतियाँ जलवाने हेतु पेट्रोल किरासन का खर्च 500/- अतिरिक्त। पुस्तक की प्रतियां आप के मद में जायेंगी।भीड़ जुटाने का खर्च अलग प्रति व्यक्ति 100/- के हिसाब से चार्ज़ किया जायेगा ।इस में नाश्ता-पानी का खर्च शामिल नहीं है । यह योजना नवोदित लेखकों के लिए विशेष लाभकारी व शुभकारी है

गोल्डेन पैक योजना :-इस योजना में लेखक यदि सम्मान भी करवाना चाहता है तो उसका भी खर्च शामिल है।ढाबे में सम्मान कराने का दर अलग।यह पैकेज़ ग्रामीण और कस्बई लेखकों के लिए उचित है।मान सम्मान में धन नहीं देखते।सम्मान है तो धन है नहीं तो टन-टना-टन है।प्रतिष्ठित लेखकों के लिए अन्य योजना। पाँच सितारा होटल में 5-लाख रुपये। लेखक के 11-अतिथि मुफ़्त।

डायमंड पैक योजना :- लेखकगण कृपया इसे डायमंड बुक्स वालों की योजना न समझें ।यह हमारे प्रकाशन की विशेष योजना है जो विशेष रुप से अनिवासी भारतीय [N R I ]  लेखकों के लिए बनाई गई है। कृपया देसी और विशेषत: कस्बई लेखक इस योजना के पढ़ने में अपना समय व्यर्थ न करें।इस योजना में प्रकाशन का भुगतान नगद और "डालर" में लिया जायेगा।अनिवासी भारतीय लेखक प्रकाशनोपरान्त कब भारत छोड़ वापस लौट जाय अत: सुरक्षा हेतु ’अग्रिम-भुगतान’ ही लिया जायेगा
इस योजना के अन्तर्गत पुस्तक का प्रकाशन ,पंच सितारा होटल में किसी विशिष्ट व्यक्ति के कर कमलों से विमोचन एवं लेखक के 11-अतिथियों की सेवा मुफ़्त।इस योजना में अतिथियों के आने जाने और ठहरने का खर्च शामिल नहीं है -लेखक को स्वयं वहन करना पड़ेगा। इस योजना का मूल्य मात्र 10,000 डालर......

प्रकाशन खर्च पढ़ कर मैं मूर्छित  हो गया ।वह तो भला हो उस सुन्दर कन्या का जिसने मेरे मुंह पर पानी के छींटे डाल कर किसी तरह मुझे चेतनावस्था में ले आई ।फिर पूछा-
"क्या हुआ अंकल !"
"कुछ नहीं बेटी! रात नींद ठीक से नहीं आई थी"
’यस सर ! मैं आप की क्या सेवा कर सकते हैं व्हाट आई कैन हेल्प यू सर! आप चाहें तो 10,000 डालर का भुगतान ’आप अपने क्रेडिट कार्ड से भी कर सकते हैं।" -मैनेज़रनुमा प्रकाशक ने समझाया
"आप के पास ’क्रेडिट कार्ड’ है अंकल ?" -कन्या ने पूछा-" किस बैंक का है?"
"नहीं बेटा ! मेरे ऊपर ’क्रेडिट’[उधार] तो है, कार्ड नहीं है"-मैने विशुद्ध हिन्दी लेखक की तरह अपनी दयनीयता प्रगट की
"आप ने ’रायल्टी’ के बारे में कुछ नहीं लिखा है= मैने मैनेज़र से जिज्ञासावश पूछ लिया
"सर ! हम रायल्टी नहीं देते । बस किताब छाप कर लेखकों का उत्साहवर्धन करते रहते हैं। हिन्दी की सेवा करते रहते हैं"
"ठीक ही कहा । पिछली बार भी एक प्रकाशक ने मेरी पुस्तक छाप तो दी मगर रायल्टी नहीं दी"
"देता कहाँ से? बिकती तो देता न......"--पीछे से एक आवाज़ आई। एक बूढ़ा आदमी ऐनक चढ़ाए -मुनीम- रज़िस्टर में कुछ हिसाब किताब कर रहा था -" तुम्हारे जैसे लेखकों की किताब छाप छाप कर इस हालत में पहुँचा हूँ कि मुनीमगीरी कर रहा हूं...."

मैने उस व्यक्ति को पहचानने की एक समर्थ कोशिश की--" अरे! श्रीमान आप? आप यहां?...
वह मेरे पहले प्रकाशक थे।
स्पष्ट है ,मैने अपनी पाण्डुलिपि उठा ली और वापस चला आया ।
अस्तु।

-आनन्द.पाठक-
09413395592


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