कुछ दिन पहले कांग्रेस के महासचिव और वैसे सब कुछ ,(सर्वेसर्वा) श्रीमान श्री राहुल गांधी गुस्से से भरे हुए लोकसभा अध्यक्ष के आसन परिकर के पास पहुँच गए और वहां जाकर उन्होंने लगभग शोर के अंदाज़ में दो बातें कही। एक तो ये कि उन्हें सुना नहीं जाता बस एक ही आदमी को सुना जाता है। उनका इशारा प्रधानमंत्री मोदी की तरफ था और दूसरी बात उन्होंने कही कि जब से मोदी जी प्रधानमन्त्री बने हैं देश में साम्प्रदायिक दंगे बढ़ गए हैं। संसद में इस पर बहस होनी चाहिए।
अतिअल्प संख्यक कांग्रेस की हालत को देखकर सरकार ने साम्प्रदायिकता पर बहस कराने की मंजूरी दे दी। दो तीन दिन बहस चली और मज़े की बात यह है कि राहुल गांधी बहस करने से पीछे हट गए। कांग्रेसी बहस करने वालों में उनका नाम नहीं था। पता नहीं किस वजह से उनकी माता जी भी चुप रहीं। वे संसद से बाहर तो साम्प्रदायिकता बढ़ने का शोर करती हैं पर संसद में कुछ नहीं बोलीं। इससे मुद्दे पर उनकी गंभीरता का पता लोगों को लग गया है। लगभग फतवे के अंदाज़ में वे मीटिंगों में बोलती हैं पर जब गंभीर रूप से कुछ कहने का का अवसर आता है तो वे चुप हो जाती हैं। राहुल गांधी का लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी के पास पहुंचना तो ऐसा लग रहा था जैसे कोई खिसियाना बिल्ला खम्बा नोंच रहा हो।मुहावरे में तो बिल्ली शब्द है पर उनके जैसे पुरुष व्यक्तित्व के लिए बिल्ली शब्द कहना तो कोई ठीक बात तो नहीं।
कांग्रेस के उकील प्रवक्ता स्वयं को हिंदी अंग्रेजी भाषा का विशषेज्ञ समझने वाले मनीष तिवारी का क्या विचार है ?क्या उनकी निगाह में कोई बढ़िया मुहावरा सकता है ,जो राहुल गांधी की मनस्थिति का सही दिग्दर्शन करता हो ?सबको इंतज़ार रहेगी।
खिसियानी बिल्ली खम्ब खम्बा नोंचे।
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