दोहे संत कबीर
इन दोहों में कवि कबीर ने जीवन की नश्वरता ,भक्ति के प्रभाव और मनुष्य
द्वारा समय को व्यर्थ न गंवाने अहंकार को छोड़ने तथा परहित कार्य
करने की प्रेरणा दी है।
वस्तुत : सतपथ पर चले बिन मनुष्य का सांसारिक जीवन मानसिक विकारों में ग्रस्त होकर नष्ट हो जाता है। मनुष्य जीवन को ईश्वर के वरदान के रूप में देखा जाता है। कबीर ऐसे संतकवि विभिन्न दृष्टान्तों से मोहमाया में फंसे प्राणि के उद्धार की कामना करते हुए कहते हैं कि अभी भी समय है कि अमूल्य जीवन को नष्ट होने से बचा लिया जाए क्योंकि शनैः शनैः यह जीवन काल के कराल मुख में अग्रसर होता जा रहा है। इसलिए कबीर मनुष्य को अन्याय और अत्याचार से निवारित करते हुए माटी और कुम्हार के माध्यम से कहते हैं :
माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंधे मोहे ,
एक दिन ऐसा होयेगा ,मैं रौंधूंगी तोहे।
कर्म के फल से जन्म और जन्मान्तर में भी बचा नहीं जा सकता। माटी प्रताड़ित और पीड़ित जीव का प्रतीक है तो कुम्हार उस प्रताड़ना का कारक है जिससे माटी को गुज़रना पड़ता है। इसलिए माटी अपने प्रताड़क को सावधान करते हुए कहती है कर्म फल से कोई भी मुक्त नहीं हो सकता। आज मैं तुम्हारे हाथों से रौंदी जा रही हूँ तो अगले जन्म में ये सम्भव है कि तुम्हें अपने अत्याचार करने की सजा मिले और उस सजा को देने वाले जन्म का निमित्त मैं बनूँ। इसलिए कर्म के इस अनिवार्य चक्र को तोड़कर समाज में ऐसे कर्म करो जिससे पीड़ा और क्लेश कम हो और तुम्हें अगले जन्म में संताप से न गुज़रना पड़े।
दुःख में सुमिरन सब करें ,सुख में करे न कोय ,
जो सुख में सुमिरन करें ,दुःख काहे को होय।
इस दोहे में कबीर ने भक्ति विमुख होकर जीवन बिताने वालों को चेतावनी दी है कि जब तुम पर दुःख आता है तुम्हें अपने इष्ट देव और परमात्मा की स्मृति आती है। यदि तुम सुख और सुविधा के जीवनकाल में ईश्वर के
स्मरण को निरंतर अपने जीवन का अंग बना लो तो फिर दुखों की याचना से गुज़रने के संताप से तुम बच जाओगे। ईश्वर कृपा से स्वमेव तुम्हारे
दुखों का निदान हो जाएगा।
कबीरा निर्भय नाम जप ,जब लग दीया बाती ,
तेल घटे बाती बुझे ,सोवेगा दिन राती।
भक्ति के इस सच्चे भाव को बढ़ाते हुए कबीर मनुष्य को समय रहते सावधान करते हुए कहतें हैं कि जब तक तुम्हारे शरीर में प्राणों का संचार हो रहा है -हे मनुष्य !उस निर्भय स्वरूप परमात्मा का स्मरण करते रहो। वो परमात्मा अपने नाम के स्मरणकर्ता को अपना स्वरूप प्रदान कर उसे मृत्यु के भय से मुक्त कर देता है।यदि जीवन में ऐसा नहीं किया गया तो जीवन के मूल्यवान प्राण मृत्यु के हाथों हर लिए जाएंगे और तब ईश्वर से दूर होकर नए जन्म की अवधि तक एक अँधेरी यात्रा से गुज़रना होगा इसलिए यदि इस जन्म के रहते ईश्वर का स्मरण नहीं किया तो मरणोपरांत की यातनाओं से मुक्ति नहीं मिलेगी।
सांस सांस सुमिरन करो ,वृथा सांस न खोये ,
न जाने किस सांस का आवन होय न होय।
मनुष्य जीवन की अमूल्य सम्पत्ति को ईश्वर की अर्चना के बिना व्यर्थ खोने वाले व्यक्तियों को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि हर श्वांस में अपने आराध्य देव का नाम स्मरण करते रहना चाहिए। सांस ईश्वर की कृपा से प्राप्त हुए हैं इसलिए ईश्वर से विमुख होकर इन्हें व्यर्थ नहीं करना चाहिए। क्योंकि यह निश्चय नहीं है कि ईश्वरीय प्रसाद के रूप में हमें अगली सांस मिले न मिले। ऐसी स्थिति में ईश्वरीय नाम अपने प्राणों की सांस को एकलयता में स्वरूपित करने का भक्तिपथ अपने हाथ से न जाने दें।
पता टूटा डाल से ले गई पवन उड़ाय ,
अब के बिछुड़े कब मिलें ,दूर पड़ेंगे जाय।
मनुष्य शरीर की नश्वरता की उपमा वृक्ष और उसके सूखे पत्तों से देते हुए कवि कबीर कहते हैं कि जैसे हवा के झौंके अथवा अपनी परिपक्वता में कोई पता अपने मूल अधिष्ठान वृक्ष से टूटकर कहीं दूर जा गिरता है और फिर वह अपने मूल से जुड़ नहीं पाता उसी प्रकार अपने ईश्वर से विमुख रहने वाले जीव को मृत्यु आकर दबोच लेती तो उसे अपने इष्ट देव का नाम भी स्मरण करने का अवसर नहीं मिलता। इसलिए कवि कहते हैं कि जब तक शरीर में सांस है कृतज्ञ होकर उस ईश्वर का स्मरण करते रहें।
कबीरा आप ठगाइये ,और न ठगिए कोये ,
आप ठगे सुख उपजे ,और ठगे दुःख होये ।
महाकवि कबीर जीवन की सच्चाई को तात्विक दृष्टि से मनुष्य के सामने रखते हुए कहते हैं कि दूसरे का अहित करने वाला अपना ही अहित करता है। माचिस की तीली जलने (जलाने )से पहले स्वयं जलती है। इसी प्रकार जो अनीति और अन्याय से दूसरोँ को ठगने का षड्यंत्र करता है वह स्वयं जीवन के वरदानों से ठगा जाता है। इसलिए सच्चे संत और सतगुरु ये कहते आये हैं कि जो दूसरों को छल पूर्वक हानि पहुंचाने से पहले स्वयं के साथ वैसा व्यवहार किये जाने की यदि कल्पना कर लेंगे तो वे दूसरों के साथ अन्याय करने के पाप से बच जाएंगे। आगे चलके इन्हीं भावों को महाकवि तुलसीदास ने इन शब्दों में कहा -
परहित सरिस धर्म नहीं भाई ,
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।
चेत सके तो चेत ले ,सत गुरु कहे पुकार ,
बिन भक्ति छूटे नहीं बहुबिधिजम की मार।
कबीरा ये तन जात है ,सके तो राखि बहोर ,
खाली हाथों वे गए ,जिनके लाख करोड़।
जीवन की नश्वरता को स्पष्टता से संकेतित करते हुए कवि कहते हैं -कि मनुष्य मृत्यु के पंजे से बच नहीं सकता, हे मनुष्य तुम्हारा ये जीवन नश्वर है तुम्हारे इस जीवन की स्मृति को लोग भुला देंगे तुम चाहो तो अपने इस जीवन में परहित के शुभ कर्म करते हुए अपनी स्मृतियों को स्मरणीय बना सकते हो क्योंकि केवल अपने लिए जीने वाले और मात्र अपने हेतु लाखों करोड़ों कमाने वाले अपनी मृत्यु के बाद संसार के लोगों द्वारा इसलिए भुला दिए गए क्योंकि उन्होंने परहित में कोई ऐसा काम नहीं किया था जिससे मृत्यु के उपरान्त वे लोगों की स्मृतियों में अपना स्थान बना पाते इसलिए जीवन वह नहीं है जो तुमने अपने लिए जीया। सच्चा जीवन तो वह है जो तुम औरों के लिए जीते हो।
इन दोहों में कवि कबीर ने जीवन की नश्वरता ,भक्ति के प्रभाव और मनुष्य
द्वारा समय को व्यर्थ न गंवाने अहंकार को छोड़ने तथा परहित कार्य
करने की प्रेरणा दी है।
वस्तुत : सतपथ पर चले बिन मनुष्य का सांसारिक जीवन मानसिक विकारों में ग्रस्त होकर नष्ट हो जाता है। मनुष्य जीवन को ईश्वर के वरदान के रूप में देखा जाता है। कबीर ऐसे संतकवि विभिन्न दृष्टान्तों से मोहमाया में फंसे प्राणि के उद्धार की कामना करते हुए कहते हैं कि अभी भी समय है कि अमूल्य जीवन को नष्ट होने से बचा लिया जाए क्योंकि शनैः शनैः यह जीवन काल के कराल मुख में अग्रसर होता जा रहा है। इसलिए कबीर मनुष्य को अन्याय और अत्याचार से निवारित करते हुए माटी और कुम्हार के माध्यम से कहते हैं :
माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंधे मोहे ,
एक दिन ऐसा होयेगा ,मैं रौंधूंगी तोहे।
कर्म के फल से जन्म और जन्मान्तर में भी बचा नहीं जा सकता। माटी प्रताड़ित और पीड़ित जीव का प्रतीक है तो कुम्हार उस प्रताड़ना का कारक है जिससे माटी को गुज़रना पड़ता है। इसलिए माटी अपने प्रताड़क को सावधान करते हुए कहती है कर्म फल से कोई भी मुक्त नहीं हो सकता। आज मैं तुम्हारे हाथों से रौंदी जा रही हूँ तो अगले जन्म में ये सम्भव है कि तुम्हें अपने अत्याचार करने की सजा मिले और उस सजा को देने वाले जन्म का निमित्त मैं बनूँ। इसलिए कर्म के इस अनिवार्य चक्र को तोड़कर समाज में ऐसे कर्म करो जिससे पीड़ा और क्लेश कम हो और तुम्हें अगले जन्म में संताप से न गुज़रना पड़े।
दुःख में सुमिरन सब करें ,सुख में करे न कोय ,
जो सुख में सुमिरन करें ,दुःख काहे को होय।
इस दोहे में कबीर ने भक्ति विमुख होकर जीवन बिताने वालों को चेतावनी दी है कि जब तुम पर दुःख आता है तुम्हें अपने इष्ट देव और परमात्मा की स्मृति आती है। यदि तुम सुख और सुविधा के जीवनकाल में ईश्वर के
स्मरण को निरंतर अपने जीवन का अंग बना लो तो फिर दुखों की याचना से गुज़रने के संताप से तुम बच जाओगे। ईश्वर कृपा से स्वमेव तुम्हारे
दुखों का निदान हो जाएगा।
कबीरा निर्भय नाम जप ,जब लग दीया बाती ,
तेल घटे बाती बुझे ,सोवेगा दिन राती।
भक्ति के इस सच्चे भाव को बढ़ाते हुए कबीर मनुष्य को समय रहते सावधान करते हुए कहतें हैं कि जब तक तुम्हारे शरीर में प्राणों का संचार हो रहा है -हे मनुष्य !उस निर्भय स्वरूप परमात्मा का स्मरण करते रहो। वो परमात्मा अपने नाम के स्मरणकर्ता को अपना स्वरूप प्रदान कर उसे मृत्यु के भय से मुक्त कर देता है।यदि जीवन में ऐसा नहीं किया गया तो जीवन के मूल्यवान प्राण मृत्यु के हाथों हर लिए जाएंगे और तब ईश्वर से दूर होकर नए जन्म की अवधि तक एक अँधेरी यात्रा से गुज़रना होगा इसलिए यदि इस जन्म के रहते ईश्वर का स्मरण नहीं किया तो मरणोपरांत की यातनाओं से मुक्ति नहीं मिलेगी।
सांस सांस सुमिरन करो ,वृथा सांस न खोये ,
न जाने किस सांस का आवन होय न होय।
मनुष्य जीवन की अमूल्य सम्पत्ति को ईश्वर की अर्चना के बिना व्यर्थ खोने वाले व्यक्तियों को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि हर श्वांस में अपने आराध्य देव का नाम स्मरण करते रहना चाहिए। सांस ईश्वर की कृपा से प्राप्त हुए हैं इसलिए ईश्वर से विमुख होकर इन्हें व्यर्थ नहीं करना चाहिए। क्योंकि यह निश्चय नहीं है कि ईश्वरीय प्रसाद के रूप में हमें अगली सांस मिले न मिले। ऐसी स्थिति में ईश्वरीय नाम अपने प्राणों की सांस को एकलयता में स्वरूपित करने का भक्तिपथ अपने हाथ से न जाने दें।
पता टूटा डाल से ले गई पवन उड़ाय ,
अब के बिछुड़े कब मिलें ,दूर पड़ेंगे जाय।
मनुष्य शरीर की नश्वरता की उपमा वृक्ष और उसके सूखे पत्तों से देते हुए कवि कबीर कहते हैं कि जैसे हवा के झौंके अथवा अपनी परिपक्वता में कोई पता अपने मूल अधिष्ठान वृक्ष से टूटकर कहीं दूर जा गिरता है और फिर वह अपने मूल से जुड़ नहीं पाता उसी प्रकार अपने ईश्वर से विमुख रहने वाले जीव को मृत्यु आकर दबोच लेती तो उसे अपने इष्ट देव का नाम भी स्मरण करने का अवसर नहीं मिलता। इसलिए कवि कहते हैं कि जब तक शरीर में सांस है कृतज्ञ होकर उस ईश्वर का स्मरण करते रहें।
कबीरा आप ठगाइये ,और न ठगिए कोये ,
आप ठगे सुख उपजे ,और ठगे दुःख होये ।
महाकवि कबीर जीवन की सच्चाई को तात्विक दृष्टि से मनुष्य के सामने रखते हुए कहते हैं कि दूसरे का अहित करने वाला अपना ही अहित करता है। माचिस की तीली जलने (जलाने )से पहले स्वयं जलती है। इसी प्रकार जो अनीति और अन्याय से दूसरोँ को ठगने का षड्यंत्र करता है वह स्वयं जीवन के वरदानों से ठगा जाता है। इसलिए सच्चे संत और सतगुरु ये कहते आये हैं कि जो दूसरों को छल पूर्वक हानि पहुंचाने से पहले स्वयं के साथ वैसा व्यवहार किये जाने की यदि कल्पना कर लेंगे तो वे दूसरों के साथ अन्याय करने के पाप से बच जाएंगे। आगे चलके इन्हीं भावों को महाकवि तुलसीदास ने इन शब्दों में कहा -
परहित सरिस धर्म नहीं भाई ,
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।
चेत सके तो चेत ले ,सत गुरु कहे पुकार ,
बिन भक्ति छूटे नहीं बहुबिधिजम की मार।
कबीरा ये तन जात है ,सके तो राखि बहोर ,
खाली हाथों वे गए ,जिनके लाख करोड़।
जीवन की नश्वरता को स्पष्टता से संकेतित करते हुए कवि कहते हैं -कि मनुष्य मृत्यु के पंजे से बच नहीं सकता, हे मनुष्य तुम्हारा ये जीवन नश्वर है तुम्हारे इस जीवन की स्मृति को लोग भुला देंगे तुम चाहो तो अपने इस जीवन में परहित के शुभ कर्म करते हुए अपनी स्मृतियों को स्मरणीय बना सकते हो क्योंकि केवल अपने लिए जीने वाले और मात्र अपने हेतु लाखों करोड़ों कमाने वाले अपनी मृत्यु के बाद संसार के लोगों द्वारा इसलिए भुला दिए गए क्योंकि उन्होंने परहित में कोई ऐसा काम नहीं किया था जिससे मृत्यु के उपरान्त वे लोगों की स्मृतियों में अपना स्थान बना पाते इसलिए जीवन वह नहीं है जो तुमने अपने लिए जीया। सच्चा जीवन तो वह है जो तुम औरों के लिए जीते हो।
सुंदर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंशानदार सार्थक प्रस्तुति1
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