सुमिरन की सुधि यों करो ,ज्यों गागर पनिहारी ;
बोलत डोलत सुरति में ,कहे कबीर विचारि।
कबीर कहते हैं भगवान का स्मरण चलते फिरते काम करते ऐसे ही रहे जैसे पनिहारिन ऊंची नींची पगडंडी पर चलते हुए भले सहेलियों से भी बतियाती चलती है परन्तु उसका ध्यान गगरी में भरे जल की ओर आंतरिक रूप में रहता है। वैसे ही भगवान की याद में उसके ध्यान में अपनी सत्ता को इस कदर खो देना कि ध्याता और ध्यान एक हो जाए। भले व्यक्ति सांसारिक काम करता रहे पर उसका ध्यान हृदय में बैठे ईश्वर की तरफ वैसे ही रहे जैसे पनिहारिन का गगरी में भरे जल की तरफ निरंतर रहता है।
गीता के आठवें अध्याय के श्लोक संख्या सात पर गौर कीजिए :
तस्मात् सर्वेषु कालेषु ,माम् अनुस्मर युध्य च ,
मय्य् अर्पितमनोबुद्धिर् ,माम् एवैष्यस्य् अशंसयम असंशयम्।
तस्मात् =इसलिए , सर्वेषु =सब में ,कालेषु =कालों में ,हर पहर ,माम् =मुझे ,अनुस्मर =याद ,स्मरण ,युध्य =युद्ध में ,संग्राम में ,च =और ,मय्य् =मुझे ,अर्पित =समर्पण , मन :=मन , बुद्धि :=प्रज्ञा -बुद्धि ,सोचने समझने की शक्ति ,माम् =मुझे ,एव =अवश्य ही ,एशयसि =तुम प्राप्त करोगे अशंश :=निस्संदेह।
भगवान अर्जुन को कह रहे हैं कि सभी समय में ,सभी परिस्थितियों में ,जीवन की हर अवस्था में प्रत्येक आश्रम में जीवन की प्रत्येक पुरुषार्थ के साथ मेरा स्मरण विस्मृत न होने पाये ,सदैव मेरा स्मरण करते रहो। अपने कर्तव्य कर्मों को न छोड़ते हुए मेरी स्मृति बनी रहे ,ध्यान मेरी तरफ ही बना रहे। लेकिन बहुत करुणा की बात है कि कुछ लोग ऐसे हैं कि जिनके जीवन में भगवान का स्मरण तो बना रहता है लेकिन अपने कर्तव्य कर्मों को बहुत पीछे छोड़ देते हैं। और कुछ लोग जो अपने कर्तव्य कर्मों में इतना डूब जाते हैं कि जीवन पूरा हो जाता है और जीवन देने वाले की याद नहीं आती है। बहुत आश्चर्य की बात है कि कई बार भगवान की कही हुई बातों का जब तक पता चल पाता है तब तक जीवन ही पूरा हो चुका होता है।
उठते बैठते हर पहर निरंतर उसकी याद में रहते सांसारिक कर्म करते रहना ही सहज कर्मयोग है पनिहारिन की तरह।
तन काम में मन राम में रहे यही कर्म योग है।
वाह क्या बात है :)
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