मशीन और इंसान में एक मौलिक अंतर यह है कि मशीनों के पास दिमाग नहीं होता। अगर होता तो मशीनें अब तक इंसानों को अपना गुलाम बना चुकी होतीं। पर संसार के बाकी जीवधारियों को पछाड़ कर धरती पर छा जाने वाले इंसान के दिमाग का विकास कैसे होता है और यह काम कैसे करता है, यह बात खुद इंसान के लिए पहेली बनी हुई है।
इधर कुछ समय से इस पहेली को सुलझाने की कोशिशें की जा रही हैं। प्रयोगशालाओं में इंसानी दिमाग जैसी संरचनाएं बनाई गई हैं और दिमाग को पढ़ने के लिए तमाम परियोजनाएं शुरू की गई हैं। कहा जा रहा है कि इस तरह जल्द ही हमारा अपना दिमाग हमारे काबू में होगा।
हू-ब-हू इंसानी दिमाग जैसी संरचना बनाने का काम पिछले साल ऑस्ट्रिया के इंस्टीट्यूट ऑफ मॉलिक्युलर बायोटेक्नोलॉजी के साइंटिस्ट जे. नॉबब्लिच और मेडेलिन लेनकास्टर के साथ ब्रिटेन की एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी की ह्यूमन जेनेटिक्स यूनिट के रिर्सचरों ने किया। उन्होंने प्रयोगशाला में दिमागी ऊतकों (टिश्यूज) का त्रि-आयामी विकास करने में सफलता हासिल की। इन वैज्ञानिकों का दावा है कि उन्होंने प्रयोगशाला में सेरीब्रल ऑर्गेनॉइड्स का विकास कर लिया है। इन्हीं संरचनाओं को मिनी ब्रेन भी कहा जा रहा है।
मिनी ब्रेन बनाने के लिए साइंटिस्टों ने इंसान के स्टेम सेल्स का सहारा लिया और प्रयोगशाला में ऐसी स्थितियां पैदा कीं, जिनमें इंसानी दिमाग जैसे कई क्षेत्र (रीजन) विकसित हो गए।
प्रयोगशाला में इंसानी दिमाग का यह छोटा स्वरूप बना लिया जाना हमारी सभ्यता के नजरिये से एक महान उपलब्धि हो सकती है। एक बार जब हम यह जान लेंगे कि इंसान का दिमाग कैसे विकसित होता है और किन हालात में वह विभिन्न जटिलताओं (मानसिक रोगों) का शिकार हो जाता है, तो आविष्कार करने, मौलिक संरचनाएं बनाने और आतंकी-विध्वंसकारी मानसिकता से जुड़े पहलुओं को समझना तथा उन पर काबू पाना आसान हो जाएगा।
असल में, जिस दुनिया को सदियों की इंसानी करामात का नतीजा कहा जाता रहा है, वह मानव मस्तिष्क की ही एक देन है। अन्य जीवधारियों से अलग इंसानी दिमाग हर वक्त सूचनाएं बटोरता रहता है, उनकी पड़ताल करता है, उन्हें स्टोर करता है और चुपचाप हमारे लिए चेतना और यथार्थ का एक संसार रचता जाता है। साइंटिस्ट तो यह भी कहते हैं कि हमारे 10 खरब ब्रेन सेल्स जिस काम में लगे रहते हैं, उनके 90 फीसदी हिस्से की सक्रियता अवचेतन में होती है। हमारे सचेत मन को इसका पता नहीं होता कि बाकी दिमाग उससे सलाह ही नहीं लेता। पर कई बार अवचेतन में जमा यही जानकारियां दिमागी खेल को एक झटके से नया मोड़ दे देती है।
शायद इसीलिए कहा जाता रहा है कि मानव सभ्यता के लिए सदियों से जो रहस्य अनसुलझे रहे हैं, उनमें एक से उसका सबसे करीबी रिश्ता है। वह है इंसान का अपना दिमाग, जिसके कोनों में असंख्य गुत्थियां अनसुलझी पड़ी हैं। यह खुद में एक करिश्मा ही है कि जो काम आज के ताकतवर कंप्यूटर तक नहीं कर पाते, उसे कुछ इंसानी दिमाग कुछ पलों में कर डालते हैं। मौलिक सोच और नई रचना का सारा श्रेय इंसानी दिमाग में कैद इन्हीं रहस्यों को जाता है।
बहरहाल, दिमाग को समझने की इन कोशिशों का मकसद सिर्फ मानसिक विकारों से निपटने के रास्ते खोज लेना भर नहीं है। इसके पीछे कहीं न कहीं वह सोच भी काम कर रही है, जो कुछ तबकों को बाकी दुनिया से श्रेष्ठ बनाए रखना चाहती है। जैसे, पिछले ही साल इंसानी दिमाग को पढ़ने के लिए अमेरिका ने 10 करोड़ डॉलर की लागत वाला जो ब्रेन मैपिंग प्रोजेक्ट लॉन्च किया था, उसका उद्देश्य कुछ ऐसा ही है।
कहने को तो अमेरिका के ब्रेन रिसर्च थ्रू अडवांसिंग इनोवेटिव न्यूरोटेक्नोलॉजीज के जरिये यह जानने का प्रयास किया जा रहा है कि जो विचार कंप्यूटर पैदा नहीं कर पाते हैं, इंसानी दिमाग उन तक कैसे पहुंच जाता है। लेकिन जो बात इस प्रोजेक्ट की लॉन्चिंग के वक्त ओबामा ने कही थी, वह ज्यादा ध्यान देने वाली है। दिमाग को पढ़ने की इस कोशिश का एक कारण ओबामा ने रोजगारों पर भारतीय और चीनियों का दबदबा खत्म करना बताया था। उनके बयान का आशय यह था कि हमेशा की तरह रोजगार पैदा करने वाली खोजें अमेरिका में ही हों, न कि भारत, चीन या जर्मनी में।
दिमाग की गुत्थियां सुलझाने की पहल को ओबामा रोजगार सृजन के संदर्भ में देख रहे हैं। अपनी इस चिंता के जरिये वे अमेरिकी जनता को आश्वस्त करना चाह रहे होंगे कि वे रोजगारों को एशियाई लोगों के हाथों में नहीं जाने देना चाहते। लेकिन आज हर देश यही यही चाहेगा कि बड़े आविष्कार उसकी जमीन पर हों और उसकी जनता की दिमागी सेहत दुरुस्त रहे।
सन्दर्भ -सामिग्री :http://navbharattimes.indiatimes.com/other/thoughts-platform/viewpoint/human-brain-is-the-biggest-mystery/articleshow/37326106.cms
बहुत खूब ।
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