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गुरुवार, 5 जून 2014

प्रेम ♥

प्रेम कभी प्रकल्पित नहीं होता.. ना ही इसपे किसी का अख्तियार होता है.... अगाध प्रेम के बावजूद ना जाने क्यूँ ये प्रतिबंधकता प्रेम को अपने चपेट में ले लेती है... 
उसे कहीं सूनसान समसान सी जगह पर छोड़ आती है
एक सवाल एक सोच के साथ... प्रेम अपने आपसे सवाल करता रहता है.. क्या सच में उसका होना गुनाह है.प्रेम को मालुम है उसके अलावा जवाब सभी के पास है... 
अकसर आसपास उसने लोगों को कहते सूना है.... प्रेम तो प्रेम है.. प्रेम से संसार है... प्रेम कोई गुनाह नहीं.... 
प्रेम इन बातों को जब भी सूनता है बस मुस्कुरा देता है...वो कभी किसी को समझा नहीं पाता ...के वो.. वो तो अंधा है... वो तो बस चल पड़ता है.... चलता ही जाता है.. बिना देखे बिना जाने चलते रहना ही उसकी नियति है..... उसे तो अपनी ओर आती कोई अड़चन भी नहीं दिखाई देती......यूंही चलते चलते राह में कभी कोई पत्थर.. तो कभी कोई औऱ अड़चन भी आ जाये तो वो संभल नहीं पाता.... वो ठोकर खाके गिर जाता  है... उसे चोट लगती है..... वो कई बार लहू लुहान भी हो जाता है.... वो अथाह पीड़ा से तड़पता है..... रोता है.... विलखता है... अपने होने  को कोसता है..... लेकिन वो तो प्रेम है.... जिसे कोई नहीं समझ सकता..... वो जानता है उसे हर हाल में चलना है...... युगों युगों तक चलते ही जाना है.... एक ऐसे सफर पे जिसकी कोई मंज़िल नहीं.... जिसका कोई अंत नहीं...... वो चल पड़ता है.... वो प्रेम है... एक अंधा प्रेम.... उसे कुछ नहीं दिखता.... वो सिर्फ महसूस करना जानता है.... वो प्रेम है.....  बस यूंही 

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