तलाश जिसकी थी वो तो नहीं मिला फिर भी
उसी की याद में ये दिल है मुब्तिला फिर भी
हज़ार तौर तरीक़ों से आज़माता है
क़रीब आ के वो रखता है फ़ासिला फिर भी
अभी तो आदमी, इन्सान बन नहीं पाया
अज़ल से चल रहा पैहम ये काफ़िला फिर भी
चिराग़ लाख बुझाओ, न रुक सकेगा ये
नए चिराग़ जलाने का सिलसिला फिर भी
लबों की प्यास अभी तक नहीं बुझी साक़ी
पिला चुका है बहुत और ला पिला फिर भी
गया वो छोड़ के जब से ,चमन है वीराना
जतन हज़ार किए दिल नहीं खिला फिर भी
बहुत सहीं हैं ज़माने की तलखियाँ "आनन’
हमारे दिल में किसी से नहीं गिला फिर भी
शब्दार्थ
मुब्तिला = ग्रस्त
अज़ल = अनादि काल
पैहम = निरन्तर ,लगातार
तल्ख़ियां = कटु अनुभव
-आनन्द.पाठक-
09413395592
बे -मिसाल शैर कहे हैं दर्शन कह दिया है आशावाद का यथार्थ का :
जवाब देंहटाएंअभी तो आदमी, इन्सान बन नहीं पाया
अज़ल से चल रहा पैहम ये काफ़िला फिर भी
चिराग़ लाख बुझाओ, न रुक सकेगा ये
नए चिराग़ जलाने का सिलसिला फिर भी
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसभी मित्र परिवारों को आज संकष्टी पर्व की वधाई ! सुन्दर प्रस्तुतीक्र्ण !
जवाब देंहटाएंआ0 जोशी जी
जवाब देंहटाएंआप का बहुत बहुत धन्यवाद
सादर
-आनन्द.पाठक-
09413395592
आ0 वीरेन्द्र जी/प्रसून जी
जवाब देंहटाएंग़ज़ल की सराहना के लिए आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद
सादर