ऐ इन्सान एक तू है
जो हर झरने को
हर नदी को
यहाँ तक की
हर समुद्र को
दूषित बनाता है
गंगा की पूजा करता है
और उसी को
मैला कर रुलाता है
दुनिया का प्रदूषण भी
तेरी देन है
फेक्ट्रियों की चिमनी
उगलती जहर हर पहर
हर गतिविधि तुम्हारी
वातावरण में फैलाती लाचारी
ये धुऐं और रासैनिक प्रदूषण
बने बीमारी के आभूषण
दम घोट रहे जीव जन्तु
और फसलों का
सोच क्या होगा तेरी
आने वाली नसलों का
हर विकार की जड़ तू है
पापों का गढ़ तू है
रुक जा संभल जा
अपने तरीकों से
वर्ना अपने
पापों में खुद
डूब जायेगा
फिर कुछ भी
तुझे नहीं बचाएगा
सारी धरती पे
प्रलय हो जाएगी
अफ़सोस तुझे समझ
बहुत देर में आयेगी
............मोहन सेठी
(...क्षमा चाहता हूँ
कौन सुनता है तेरी दुहाई को
मैं दबा हूँ जीवन के पहाड़ के नीचे
तू भैंस के आगे बीन ना बजा
मुझे जीवन चलाना ना सिखा...)
सुंदर !
जवाब देंहटाएंजोशी जी आभार ....मंगल कामनाएँ
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी है और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - बृहस्पतिवार- 30/10/2014 को
हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः 41 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें,
दर्शन जी आभार मेरी रचना को इस ब्लॉग पर स्थान देने के लिये... शुभकामनाएँ
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