ईशोपनिषद के प्रथम
मन्त्र के तृतीय भाग भाग ..”मा गृध कस्यविद्धनम." का
काव्य-भावानुवाद......
किसी के धन की सम्पति श्री
की,
इच्छा लालच हरण नहीं कर |
रमा चंचला कहाँ कब हुई ,
किसी एक की सोच अरे नर !
धन वैभव सुख सम्पति कारण,
ही तो द्वेष द्वंद्व होते
हैं|
छीना-झपटी, लूट हरण से,
धन वैभव सुख कब बढ़ते हैं |
अनुचित कर्म से प्राप्त सभी
धन,
जो कालाधन कहलाता है |
अशुभ अलक्ष्मी वास करे गृह,
मन में दैन्य भाव लाता है |
शुचि भावों कर्मों को
प्राणी,
मन से फिर बिसराता जाता |
दुष्कर्मों में रत रहकर नित,
पाप-पंक में धंसता जाता |
यह शुभ ज्ञान जिसे हो जाता,
शुभ-शुचि कर्मों को अपनाता
|
ज्ञानमार्ग युत जीवन-क्रम
से,
मोक्ष मार्ग पर चलता जाता ||
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