जगत गुण है ,परमात्मा निर्गुण है। परमात्मा बीज रूप है। जब प्रगट होता है तब गुण दिखाई पड़ते हैं,जब अप्रकट हो जाता है तो गुण खो जाते हैं परमात्मा में ही लीन हो जाते हैं वैसे ही जैसे कल्प के अंत में यह सृष्टि उसी परमात्मा में (वि )लीन हो जाती है जिससे निसृत होती है अव्यक्त से व्यक्त होती है। फिर व्यक्त से अव्यक्त।
निर्गुण परमात्मा की सगुण अभिव्यक्ति है यह सृष्टि।
सगुण और निर्गुण दो चीज़ें नहीं हैं। न ही परस्पर विरोधी हैं। विलोम नहीं हैं एक दूसरे का। सगुण निर्गुण की अभिव्यक्ति का नाम है। और निर्गुण सगुण की अप्रकट अवस्था का ही दूसरा नाम है। अपनी निजता अपने स्वभाव का अनुभव निर्गुण होता है अनुभूत होता है। लेकिन हमारे स्वभाव की अभिव्यक्ति मैनीफेस्टेशन ,प्रगटीकरण सगुन ही होगा सदैव।
आत्मा का जो छोर दिखाई पड़ता है वह शरीर है ;और शरीर का जो छोर दिखाई नहीं पड़ता वह आत्मा है। जो शरीर के पार है शरीर से परे है तब भी है अपने विशुद्ध रूप में जब शरीर नहीं है वह आत्मा है। शरीर मिलने पर यही जीवात्मा है।
परमात्मा का वह हिस्सा जो दृश्य हो गया है वह प्रकृति है माया है। परमात्मा नित्य है माया (जगत )अनित्य है अभी है अभी नहीं है। जो आज है वह कल नहीं है। यही माया है। मिथ्या नहीं है माया (जगत ),ट्रांजेक्शनल रियलिटी है। एब्सोलूट रियलिटी नहीं है।
प्रकृति का वह हिस्सा जो अदृश्य है वही परमात्मा है। संसार परमात्मा का दृश्य रूप है और परमात्मा जगत का अदृश्य रूप है। इस सृष्टि में एक ही चैतन्य तत्व है ,व्यष्टि (व्यक्ति ) के स्तर पर उसे हम आत्मा और समष्टि (Totality )के स्तर पर परमात्मा कह देते हैं।
जीवन और मृत्यु एक ही स्रोत से आते हैं। मृत्यु जीवन का नियमन करती है। रेगुलेट करती है जीवन को। जीवन की अव्यवस्था बेकली ,आपाधापी का शमन करती है मृत्यु। इसीलिए मृत्यु को यम भी कहा गया है।
यम अर्थात नियमन- कर्ता।
ब्रह्म का मतलब है जो निरंतर विस्तीर्ण होता चला जाता है constantly expanding जो बड़े से भी बड़ा है और एक साथ छोटे से भी छोटा है। जैसे Big Bang का Primeval Atom (आदिम अणु ),शून्य से भी शून्य। उत्तप्त से भी अति -उत्तप्त,घनत्वीय से भी अति -घनत्वीय।
ब्रह्म और विस्तार एक ही मूल धातु (Root Word ) से निर्मित होते हैं। एक ही शब्द के रूप हैं Allotropes.ब्रह्म का मतलब परमात्मा नहीं होता। परमात्मा हृद गुहा में विराजमान है हम उसकी और पीठ किये हुए हैं हमारा मुख जगत की ओर है। बेटा बाप से पीठ किये हुए है।
ब्रह्म एक साथ सब जगह है निर्गुण -निराकार -निर-विशेष है। स्थिति में जो विस्तीर्ण है ऐसा नहीं है ब्रह्म जो प्रक्रिया process में विस्तीर्ण है वह है ब्रह्म निरंतर विस्तारशील। फूलता फैलता हुआ वर्धमान।
असम्भूति ब्रह्म का अर्थ है जब वह फैला नहीं था -शून्य ब्रह्म। गणित में जिसे Mathematical singularity कहा जहां पहुंचकर भौतिकी के सभी ज्ञात नियम टूट जाए ,इलेक्ट्रोन प्रोटोन भी टूट फूटकर अपना अस्तित्व खो दें। असम्भूति -अन -अस्तित्व ब्रह्म का अर्थ है बीज रूप ब्रह्म ,बिंदु रूप ब्रह्म (अ -व्यक्त परमात्मा ).
सम्भूत -जो है।सम्भूत ब्रह्म को कार्य ब्रह्म भी कहा गया है।
अ -सम्भूत -जिससे हुआ है ,जिसमें यह जगत लीन हो जाएगा ,इसीलिए अ -सम्भूत ब्रह्म को कारण ब्रह्म भी कहा गया है।
जय श्रीकृष्णा।
निर्गुण परमात्मा की सगुण अभिव्यक्ति है यह सृष्टि।
सगुण और निर्गुण दो चीज़ें नहीं हैं। न ही परस्पर विरोधी हैं। विलोम नहीं हैं एक दूसरे का। सगुण निर्गुण की अभिव्यक्ति का नाम है। और निर्गुण सगुण की अप्रकट अवस्था का ही दूसरा नाम है। अपनी निजता अपने स्वभाव का अनुभव निर्गुण होता है अनुभूत होता है। लेकिन हमारे स्वभाव की अभिव्यक्ति मैनीफेस्टेशन ,प्रगटीकरण सगुन ही होगा सदैव।
आत्मा का जो छोर दिखाई पड़ता है वह शरीर है ;और शरीर का जो छोर दिखाई नहीं पड़ता वह आत्मा है। जो शरीर के पार है शरीर से परे है तब भी है अपने विशुद्ध रूप में जब शरीर नहीं है वह आत्मा है। शरीर मिलने पर यही जीवात्मा है।
परमात्मा का वह हिस्सा जो दृश्य हो गया है वह प्रकृति है माया है। परमात्मा नित्य है माया (जगत )अनित्य है अभी है अभी नहीं है। जो आज है वह कल नहीं है। यही माया है। मिथ्या नहीं है माया (जगत ),ट्रांजेक्शनल रियलिटी है। एब्सोलूट रियलिटी नहीं है।
प्रकृति का वह हिस्सा जो अदृश्य है वही परमात्मा है। संसार परमात्मा का दृश्य रूप है और परमात्मा जगत का अदृश्य रूप है। इस सृष्टि में एक ही चैतन्य तत्व है ,व्यष्टि (व्यक्ति ) के स्तर पर उसे हम आत्मा और समष्टि (Totality )के स्तर पर परमात्मा कह देते हैं।
जीवन और मृत्यु एक ही स्रोत से आते हैं। मृत्यु जीवन का नियमन करती है। रेगुलेट करती है जीवन को। जीवन की अव्यवस्था बेकली ,आपाधापी का शमन करती है मृत्यु। इसीलिए मृत्यु को यम भी कहा गया है।
यम अर्थात नियमन- कर्ता।
ब्रह्म का मतलब है जो निरंतर विस्तीर्ण होता चला जाता है constantly expanding जो बड़े से भी बड़ा है और एक साथ छोटे से भी छोटा है। जैसे Big Bang का Primeval Atom (आदिम अणु ),शून्य से भी शून्य। उत्तप्त से भी अति -उत्तप्त,घनत्वीय से भी अति -घनत्वीय।
ब्रह्म और विस्तार एक ही मूल धातु (Root Word ) से निर्मित होते हैं। एक ही शब्द के रूप हैं Allotropes.ब्रह्म का मतलब परमात्मा नहीं होता। परमात्मा हृद गुहा में विराजमान है हम उसकी और पीठ किये हुए हैं हमारा मुख जगत की ओर है। बेटा बाप से पीठ किये हुए है।
ब्रह्म एक साथ सब जगह है निर्गुण -निराकार -निर-विशेष है। स्थिति में जो विस्तीर्ण है ऐसा नहीं है ब्रह्म जो प्रक्रिया process में विस्तीर्ण है वह है ब्रह्म निरंतर विस्तारशील। फूलता फैलता हुआ वर्धमान।
असम्भूति ब्रह्म का अर्थ है जब वह फैला नहीं था -शून्य ब्रह्म। गणित में जिसे Mathematical singularity कहा जहां पहुंचकर भौतिकी के सभी ज्ञात नियम टूट जाए ,इलेक्ट्रोन प्रोटोन भी टूट फूटकर अपना अस्तित्व खो दें। असम्भूति -अन -अस्तित्व ब्रह्म का अर्थ है बीज रूप ब्रह्म ,बिंदु रूप ब्रह्म (अ -व्यक्त परमात्मा ).
सम्भूत -जो है।सम्भूत ब्रह्म को कार्य ब्रह्म भी कहा गया है।
अ -सम्भूत -जिससे हुआ है ,जिसमें यह जगत लीन हो जाएगा ,इसीलिए अ -सम्भूत ब्रह्म को कारण ब्रह्म भी कहा गया है।
जय श्रीकृष्णा।
bahut sundar aur satrhk lekha likha hai aapne ....
जवाब देंहटाएंहार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल रविवार (12-04-2015) को "झिलमिल करतीं सूर्य रश्मियाँ.." {चर्चा - 1945} पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'