[नोट ; मेरे एक शायर मित्र का हुक्म हुआ कि पिछली ग़ज़ल की ज़मीन पर चन्द अश’आर और पेश किया जाये.....हस्ब-ए-हुक्म एक ग़ज़ल उसी ज़मीन और उसी ’बहर’ पेश है....आप सब का आशीर्वाद चाहूँगा.]
एक ग़ज़ल : दो दिल की दूरियों को...
दो दिल की दूरियों को, मिटाने की बात कर
अब हाथ दोस्ती का , बढ़ाने की बात कर
मैं हूँ अगर तो तू है ,जो तू ही नहीं मै क्या !
ये रिश्ता बाहमी है , निभाने की बात कर
परदे में है अज़ल से तेरा हुस्न जल्वागर
परदे में राज़ है तो उठाने की बात कर
आने लगा था दिल को यकीं तेरी बात का
फिर से उसी पुराने बहाने की बात कर
इलज़ाम गुमरही का मुझ पे लगा दिया
ज़ाहिद ! मुझे तू होश में लाने की बात कर
आते नहीं मुझे कि इबादत के तौर क्या ?
है रंज-ओ-ग़म तुझे तो सिखाने की बात कर
रस्म-ओ-रिवाज़ हो गए ’आनन’ तेरे क़दीम
अब तो बदल कि बदले ज़माने की बात कर
शब्दार्थ
बाहमी =आपसी .पारस्परिक
अज़ल से =अनादि काल से
क़दीम = पुराने ,पुरातन
-आनन्द.पाठक
09413395592
एक ग़ज़ल : दो दिल की दूरियों को...
दो दिल की दूरियों को, मिटाने की बात कर
अब हाथ दोस्ती का , बढ़ाने की बात कर
मैं हूँ अगर तो तू है ,जो तू ही नहीं मै क्या !
ये रिश्ता बाहमी है , निभाने की बात कर
परदे में है अज़ल से तेरा हुस्न जल्वागर
परदे में राज़ है तो उठाने की बात कर
आने लगा था दिल को यकीं तेरी बात का
फिर से उसी पुराने बहाने की बात कर
इलज़ाम गुमरही का मुझ पे लगा दिया
ज़ाहिद ! मुझे तू होश में लाने की बात कर
आते नहीं मुझे कि इबादत के तौर क्या ?
है रंज-ओ-ग़म तुझे तो सिखाने की बात कर
रस्म-ओ-रिवाज़ हो गए ’आनन’ तेरे क़दीम
अब तो बदल कि बदले ज़माने की बात कर
शब्दार्थ
बाहमी =आपसी .पारस्परिक
अज़ल से =अनादि काल से
क़दीम = पुराने ,पुरातन
-आनन्द.पाठक
09413395592
हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (08-04-2015) को "सहमा हुआ समाज" { चर्चा - 1941 } पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'