हुस्न उनका जल्वागर था, नूर था
मैं कहाँ था ,बस वही थे, तूर था
होश में आया न आया ,क्या पता
बाद उसके उम्र भर , मख़्मूर था
एक परदा रोशनी का सामने
पास आकर भी मैं कितना दूर था
एक लम्हे की सज़ा एक उम्र थी
वो तुम्हारा कौन सा दस्तूर था
अहल-ए-दुनिया का तमाशा देखने
क्या यही मेरे लिए मंज़ूर था ?
खाक में मिलना था वक़्त-ए-आखिरी
किस लिए इन्सां यहाँ मग़रूर था ?
राह-ए-उल्फ़त में हज़ारों मिट गये
सिर्फ़ ’आनन’ ही नहीं मज़बूर था
शब्दार्थ
तूर = उस पहाड़ का नाम जिस पर हज़रत मूसा का अल्लाह त’आला से बात हुई थी
मख़्मूर था = ख़ुमार में था ,नशें में था.होश में नहीं था
-आनन्द.पाठक-
09413395592
आपको सूचित किया जा रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शनिवार (18-04-2015) को "कुछ फर्ज निभाना बाकी है" (चर्चा - 1949) पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आ0 शास्त्री जी-उत्साह वर्धन के लिए आप का बहुत बहुत धन्यवाद-आनन्द.पाठक
हटाएंहर शैर कीमती बहतरीन ग़ज़ल कही है।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंआ0 ओंकार जी-उत्साह वर्धन के लिए आप का बहुत बहुत धन्यवाद-आनन्द.पाठक
हटाएंसुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
आ0 सन्जू जी-उत्साह वर्धन के लिए आप का बहुत बहुत धन्यवाद-आनन्द.पाठक
हटाएंबेहतरीन गज़ल
जवाब देंहटाएंआ0 रचना जी-उत्साह वर्धन के लिए आप का बहुत बहुत धन्यवाद-आनन्द.पाठक
हटाएंआ0 Emmanuel जी-उत्साह वर्धन के लिए आप का बहुत बहुत धन्यवाद-आनन्द.पाठक
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