कहाँ सु सीखी आपने ,बात करन की रीत ,
दिन दूनी निशि चौगुनी ,बढ़ती जाती प्रीत।
सम पे रहना आपने कहाँ सु सीखा मीत ,
मीठी हो या तिक्त आपकी बतियों में है प्रीत।
मावस हो या पूर्णिमा गाते देखा गीत ,
पावस हो या ग्रीष्म हो ,देखा तुम्हें विनीत।
मौसिम की बटमार में तुम हरदम रहे सुनीत ,
रंग बदलती शाम में होते तुम अभिनीत।
ऋतुएँ आईं और गईं , मुस्काए जगजीत
निर्गुण ब्रह्म बने रहे ,दुग्ध में ज्यों नवनीत।
आर्जव तुम में दीखता अर्जुन सा मनमीत ,
वाणी में अक्सर तिरी अनुगुंजित संगीत।
साक्षी भावित तुम रहे ,सुख दुःख में मनमीत,
स्तिथप्रज्ञ बने रहे आंधी ओला शीत।
sundar rachna................badhayee
जवाब देंहटाएंहार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (08-04-2015) को "सहमा हुआ समाज" { चर्चा - 1941 } पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'