रास्ता इक और आयेगा निकल
हौसले से दो क़दम आगे तो चल
लोग कहते हैं भले ,कहते रहें
तू इरादों मे न कर रद्द-ओ-बदल
यूँ हज़ारो लोग मिलते हैं यहाँ
’आदमी’ मिलता कहाँ है आजकल
इन्क़लाबी सोच है उसकी ,मगर
क्यूँ बदल जाता है वो वक़्त-ए-अमल
इक मुहब्बत की अजब तासीर से
लोग जो पत्थर से हैं ,जाएं पिघल
इक ग़म-ए-जानाँ ही क्यूंँ हर्फ़-ए-सुखन
कुछ ग़म-ए-दौराँ भी कर ,हुस्न-ए-ग़ज़ल
खाक से ज़्यादा नहीं हस्ती तेरी
इस लिए ’आनन’ न तू ज़्यादा उछल
-आनन्द.पाठक-
09413395592
शब्दार्थ
ग़म-ए-जानाँ = अपना दर्द
ग़म-ए-दौराँ = ज़माने का दर्द
जौक़-ए-सुखन = ग़ज़ल लिखने/कहने का शौक़
हुस्न-ए-ग़ज़ल = ग़ज़ल का सौन्दर्य
वक़्त-ए-अमल = अमल करने के समय
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