मुहब्बत के मेंह में
भीगा इस कदर कि
जिस्म के साथ
रूह भी गीली है आज तक
नूर का शरबत
पूरे वज़ूद में भर गया पाकीज़गी.
अब फर्क नहीं पड़ता इससे
कि महबूब साथ है या अलहदा
एक कमी थी गम की
मुक्कमल कर गया शख्शियत मेरी
मुहब्बत के शहर में वो काफिर
जो चाह जिस्म की करे
या बद्दुआ दे बेवफा मुहब्बत को.
गुजरकर पाकीज़गी के समुन्दर से
जब बराबर हो गया खड़ा फरिश्तों के
मुहब्बत को बेवफा कह
दोजख को जी नहीं सकता.
कुछ तो मज़बूरियाँ रही होगी उसकी
कि रूह आज भी काँपती है
मेरे जिक्र से उसकी ,
और आँखे पहन लेती है
मुस्कुराहट का नक़ाब .
या रब !
वो टॉवल आज भी गीला है
जिससे पोंछा था सर
भीगने के बाद मुहब्बत के मेंह में ....
सुबोध- २९ जून, २०१४
वाह...।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति।
बहुत सुंदर ।
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