हाँ,आज भी टूट जाता है
घर आँगन अंदर तक
जब बेटी विदा होती है.
अपनी ससुराल जाकर भी
अपना आधा हिस्सा
छोड़ जाती है पीहर में.
फ़िक्र अपने भाई की,
मालिश पापा के सिर की,
आलिंगनबद्ध होना माँ से
ललक बचपन को जीने की
कर देती है भाव - विभोर
जमघट सहेलियों का
दौर चाय -कॉफी का देर रात तक
गीली-गीली रातों में
अलाव जलता है जज्बातों का.
शायद बेटियां पीहर जीने आती है--
छूटे हुए बचपन की यादें
भाई के साथ की गई शरारतें
पापा से की गई ज़िद
माँ के हाथ की रोटी
और कहीं गिरा पड़ा वो लम्हा
जिसमे दर्द भी था,खुशी भी.
और इन सबको जी कर
जब वो लौटती है ससुराल
अपना आधा हिस्सा
छोड़ जाती है पीहर में.
सुबोध
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (29-07-2014) को "आओ सहेजें धरा को" (चर्चा मंच 1689) पर भी होगी।
--
हरियाली तोज और ईदुलफितर की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मर्मस्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएं