"पंडितजी आप एकता कपूर के सीरियल्स नहीं देखते ?मेरी बेटी तो बहुत अच्छी है। आपकी आँखों में ही फर्क है ?क्या दिमाग में भी फर्क है "-आज भी याद है सुरेश पंडित को अपनी समधन का ये जुमला जो दहेज़ के सामान की तरह आज भी अपनी बेटी के घर में घुसी हुई है। सुरेश ने इतना भर ही तो कहा था :आपकी बेटी ब्रेकफास्ट में रोज़ पोहा बनाके डाल देती है।ये सुनते ही सुरेश पंडित के समधी ने भी लगभग झपटते हुए कहा था -पंडितजी मेरी बेटी सबकी फरमाइश पूरी करने के लिए नहीं है ये घर है होटल नहीं है।अब से बीस बरस पहले ये संवाद समधन -समधी के श्रीमुख से उनके ही घर में प्रसूत हुए थे। हालांकि पंडित का बेटा भी वहीँ था पर उसे तो जैसे सांप ही सूंघ गया था।
फिर भी माँ बेटी में एक बड़ा अंतर है। माँ अपने पति हमारे यानी हमारे समधी की भी परवाह नहीं करती। बेटी के घर में सुख मिलता है मेड को चकरघन्नी की तरह घुमाती रहती है। बस यहीं पड़ी रहती है बारहमासी उत्पाद की तरह जबकि अपने घर में खुद झाड़ू पौछा भांडे बर्तन सब करना पड़ता है। लेकिन बेटी सिर्फ अपने पति और बाल बच्चों के बारे में ही सोचती करती है बस इतना ही है उसका संसार। उसके घर में उसकी माँ के अलावा किसी और का निभाव किसी कलाकारी से कम नहीं है। सुरेश पंडित ने असली मुज़रिम पकड़ लिया था। वह इतने से ही अपने को तस्सली दे रहा है और अपनी समझ पर संतुष्ट भी है कि जैसा बीज वैसा फल।अब वो बीज बदलने से तो रहा। इन बीस बरसों में क्या क्या घटित नहीं हुआ इसकी चर्चा करना अब सब फ़िज़ूल जान पड़ता है सुरेश पंडित यही सोच रहा था.
फिर भी माँ बेटी में एक बड़ा अंतर है। माँ अपने पति हमारे यानी हमारे समधी की भी परवाह नहीं करती। बेटी के घर में सुख मिलता है मेड को चकरघन्नी की तरह घुमाती रहती है। बस यहीं पड़ी रहती है बारहमासी उत्पाद की तरह जबकि अपने घर में खुद झाड़ू पौछा भांडे बर्तन सब करना पड़ता है। लेकिन बेटी सिर्फ अपने पति और बाल बच्चों के बारे में ही सोचती करती है बस इतना ही है उसका संसार। उसके घर में उसकी माँ के अलावा किसी और का निभाव किसी कलाकारी से कम नहीं है। सुरेश पंडित ने असली मुज़रिम पकड़ लिया था। वह इतने से ही अपने को तस्सली दे रहा है और अपनी समझ पर संतुष्ट भी है कि जैसा बीज वैसा फल।अब वो बीज बदलने से तो रहा। इन बीस बरसों में क्या क्या घटित नहीं हुआ इसकी चर्चा करना अब सब फ़िज़ूल जान पड़ता है सुरेश पंडित यही सोच रहा था.
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