गर तुम हर दिन आत्मा के इशारों को समझो
गर हर दिन तुम सुकर्मों में खुद को
डूबने दो
प्रकृति काअचम्बा अगले साल देखते रह
जावोगे
नायाब भैंट उन्नति की पा प्रकृति के
हो जावोगे
पाया मैंने युद्ध बाहर नही भीतर हुआ
करते हैं
कदम कदम आत्मा करती सचेत लोभ बहकाते
हावी हो अंह,लोभ,मोह कदम आत्मा के थम
जाते
मायूस आत्मा मृत शरीर ढोती विजयी हम
होते हैं
सत्यता
नकबूल हमें, दुखी होते भाग्य को रोते हैं
पथिक अनजाना
very good and philosifical poem
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