palliative care वक्त की मांग है। क्या बरखा जब कृषि सुखाने।
जाके पैर न फटी बिवाई ,वो क्या जाने पीर पराई
जाके पैर न फटी बिवाई ,वो क्या जाने पीर पराई
राजनीति के हमारे नामचीन धंधेबाज़ों के गुलगपाड़े ने संसद को ऐसी स्थिति में ला खड़ा किया है जहां किसी भी प्रकार का विधाई काम करना मुमकिन ही नहीं रह गया है। पंद्रहवीं लोक सभा ने तो विधाई काम काज न करने के नए कीर्तिमान रचे हैं। फिर भी बहुत कुछ ऐसा है जो अभी भी न सिर्फ किया जा सकता है बे -पर्दा हो चुकी राजनीति की लाज भी बचाई सकता है।
अभी भी कुछ मानवीय क़ानून पारित किये जा सकते हैं। दर्द को न सिर्फ अकेले झेलना कष्टकर होता है देखने वाले हमदर्द को भी इसकी तदानुभूति हो ही जाती है। कैंसर के मरीज़ों को रोग के आखिरी चरण में मोहब्बत और मार्फीन आधारित दर्द निवारक दवाओं की ज़रुरत रहती है। इस चरण में ड्र्ग थिरेपी (कीमोथिरेपी ) के पार्श्व प्रभाव के बतौर होने दिखने वाले दर्द का ज़ायज़ा कोई हमदर्द ही ले सकता है। कभी पैन क्लिनिक में जाकर देखिये। कमसे कम पैन क्लिनिक में काम करने वाले चिकित्सक इन टर्मिनली इल पेशेंट्स की मौत को आसान और सम्मान जनक बना देते हैं अपनी मोहब्बत से ,अस्पताल में उनका जन्म दिन मनाकर उन्हें ज़रूरी मार्फीन आधारित पैन किलर मुहैया करवाकर।सेवा सुश्रुवा द्वारा।
अफ़सोस हमारे देश में यहाँ भी १९८५ में बना वह कानून आड़े आता है जो नारकोटिक्स ड्र्ग्स एंड साइकोट्रोपिक एब्सटेंसिज एक्ट १९८५ के नाम से जाना जाता है। इस पदार्थ के दुपयोग किये जाने के चलते इसकी उपलब्धता ज़रुरत मंद मरीज़ों को भी नहीं हो पा रही है।
इस कानून में फौरी तौर पर संशोधन अभी भी किया जा सकता है ब-शर्ते हमारे वोट खोर दर्द झेलते लोगों को इंसान समझे ,वोट खोरी वोट बैंक की नज़र से न देखें।
पैलिएटिव केअर में मॉर्फीन मिलने लगे सहज सुलभ तो ऐसे लोगों की कमसे कम मौत तो आसान हो जाए। फिर चाहे वह एचआईवी -एड्स के अंतिम चरण में पहुंचे मरीज़ हों या टर्मिनली इल कैंसर पेशेंट।
विवादासपद तेलांगना जैसे मुद्दों पर मलयुद्ध होता रहेगा लेकिन यह एक मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा मसला है राजनीति की परिधि से परे क्या इसीलिए इस ओर उदासीनता है ?
गौर तलब है नारकोटिक्स ड्र्ग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंसिज एक्ट १९८५ के लागू होने के दस बरसों बाद मॉर्फीन का दवा के रूप में इस्तेमाल ९७% घट गया है।जिन्हें इसकी पैन क्लीनिकों में ज़रुरत है वह इससे महरूम हैं।
एक दशक में भारत के लोगों की जीवन प्रत्याशा पांच बरस बढ़ चुकी है।
लेकिन बीमारी का बोझ भी बढ़ता गया है ऐसे ही नाकारा कानूनों और
संवेदन हीन नज़रिये के चलते।
palliative care वक्त की मांग है। क्या बरखा जब कृषि सुखाने।
सही बात !
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