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शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

ठुकरा विजयश्री गले लगाते हैं—पथिकअनजाना—479 वीं पोस्ट



इश्क नशा मानों सगी बहनें हो यह जब सिर चढती हैं
बुजुर्गों अपनों सपनों साथियों हाथियों की फिक्र नही होती
राह कठिन मौत दस्तक दे होवें हौसलेपस्त व सूझे न कुछ
इंसा क्या चीटियों के पंख उगते गीदड भाग जाते शहर को
परवाने दीप लौ पर जल जाते दीवानें रातों को जागते हैं
जाने मेरे कर्म कहाँ लाये रहनुमां नही राह नजर न आती
जिस पर होती सवार बहनें उनका लक्ष्य सिर्फ चरम सीमा
इस राह के राहगीर दफनाते रिश्ते नही तो खुद दफन होते
वासनाहीन निस्वार्थ प्रेम से बने महल में स्थान पा जाते हैं
दुनियायी पद धन आबरू को ठुकरा विजयश्री गले लगाते हैं
पथिक अनजाना


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