मनन ,ध्यान या साधना के फायदे भी हैं ?
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साधना हमारे चित्त को ऊर्ध्वगामी बनाती है। मन दिव्य चेतना से जा मिलता है। ज्यादातर समय हम मैटीरियल कांशसनेस में ही रहते हैं। जब हमारा ध्यान परमात्मा गुरु या फिर संत जनों की तरफ होता है हमारी दिव्य चेतना जागने लगती है सक्रिय होने लगती है।हमारा मूल स्वरूप दिव्य चेतना का ही है क्योंकि हम परमात्मा के अंश हैं जो दिव्यता का आगार है। लेकिन हम इस शरीर को ही अपना आपा समझे रहते हैं शरीर और शरीर के तमाम संबंधों में ही निसिबासर अटके रहते हैं। भौतिक जगत हमें रिझाता रहता है।
मेडिटेशन हमारी इस जड़ता (मूर्खता ,अज्ञानता )को तोड़ने का उपाय है। हम अपने बुनियादी आत्म स्वरूप ,दिव्यचेतन -ऊर्जा स्वरूप को बूझने लगते हैं। साधना का पथ हमें भगवान् की ओर ले जाता है पदार्थ मय जगत से छिटक हम अपने सर्व सम्बन्ध भगवान् से जोड़ने लगते हैं। धीरे धीरे हमारी चेतना पवित्रता की ओर बढ़ने लगती है। अपने दिव्य-पूर्णांश को समझने लगती है। अरे इस आनंद से तो हम वाकिफ ही नहीं थे।
अमृत वेले का ध्यान हमें सारे दिन ऊर्जित रखता है। हमारी बैटरी डिस्चार्ज (ऊर्जा हीन ) नहीं होती है।
दूध को लीजिए। इसमें आप पानी मिलाते जाइये दूध पतला होता चला जाएगा। अपनी शुद्धता नहीं रख पायेगा। इसकी गुणवत्ता (स्पेसिफ डेंसिटी ,सापेक्षिक घनत्व )गिरती चली जायेगी। लेकिन अगर पानी को इससे अलग रखा जाए और इसका दही जमा लिया जाए। दही बिलोके फिर उससे मख्खन अलग कर लिया जाए। अब दूध पानी को चुनौती दे सकता है। डाल लो जितना पानी मख्खन में पानी से यह संयुक्त ही नहीं होगा। उसके सीने पे चढ़के बैठेगा।
इसीप्रकार इस निरंतर परिवर्तन शील भौतिक जगत (मैटीरियल एनर्जी ,) जिसे परमात्मा की इन्फीरियर एनर्जी भी कहा गया है, इससे मन को हटाके जब ईश्वर में लगाते हैं तब ध्यान ,ये मनन ,ये साधना हमारी दिव्य चेतना को जागृत किये रहती है। अब इसे कोई चुनौती नहीं दे सकता। भौतिक जगत के आकर्षण से बड़ा आकर्षण इसे बाँधने लगता है।
चन्दन वृक्ष की तरह हम संसार में बने रहें लेकिन संसार को अपने अन्दर
न आने दें। साधना इसका उपाय है।
चन्दन विष व्यापै नहीं ,लिपटे रहत भुजंग।
अधुनातन विज्ञान की माने तो हम अपने मस्तिष्क की कुल क्षमताओं का तीन फीसद ही इस्तेमाल कर पा रहे हैं।वजह है हमारा मन जो शाखा मृग की तरह एक डाल से दूसरी की तरफ कूदता रहता है, भटकता रहता है इन्द्रियों के विषयों की तरफ, बिखर जाता है हमारा मन और उसकी ऊर्जा। ध्यान लगाना एक बार सीख जाएँ तो अपनी बौद्धिक सामर्थ्य का भी बेहतर इस्तेमाल करने लगें।
इसके कायिक फायदे भी हैं। ध्यान अब एक आनुषांगिक चिकित्सा के रूप में भी मान्य हो चुका है। आजके ९० फीसद रोग मनोकायिक हैं मन से काया में आते हैं। विद्यासागर इंस्टिट्यूट आफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसिज़,नै दिल्ली में तो मंदिर ही बा -कायदा बनाया हुआ है जहां मनोरोगियों को साधना के लिए ले जाते हैं।
,नकारात्मक विचार ,ईर्ष्या ,डाह ,अतार्किक असंगत स्पर्धा ,होड़ाहोड़ी ,हमारे मनोकोश में (Mental sheath )में एक विक्षोभ पैदा करती है। यह विक्षुब्धता की लहर फिर हमारे प्राणमय कोष तक भी पहुँचती है। बस यही विक्षुब्धता फिर काया रोगों के रूप में प्रगटित होती है,l.
प्रभु का ध्यान मन और काया के रोगों को हर लेता है। जीवन ऊर्जा मुक्त
होती है ध्यान से जो काया को भी ऊर्जावान बनाये रहती है।
जगद जितं केन ?मनो ही येन।
कई लोग कहते सुने जाते हैं भजन करते -करते ध्यान घटने लगता है सांसारिक पदार्थों तकाजों की ओर चला जाता है। कभी तो मन में
एक दम से अनुराग पैदा होता है परमात्मा के प्रति गुरु के प्रति और कभी वही मन एक दम से निर्भाव बना रहता है। ऐसा क्यों होता
है?
इसकी वजह यह है हमारा मन तीन गुणों से बना है :ये तीनों ही गुण परमात्मा की उस शक्ति के हैं जिसे हम माया कहते हैं। मैटीरियल
एनर्जी कहते हैं। इन्फीरियर प्रकृति भी कहते हैं। परमात्मा के पास एक दूसरी शक्ति भी है जिसे डिवाइन एनर्जी कहा जाता है। हम उसी
दिव्य ऊर्जा के अंश हैं चेतन ऊर्जा भी कहा जाता है इसे। सुपीरियर एनर्जी भी।
लेकिन यहाँ बात इन्फीरियर प्रकृति (माया )की हो रही है। जिससे हमारा मन भी बना है यह भौतिक जगत भी। इस प्रकृति (माया )के
तीनों गुण दिन भर कम ज्यादा होते रहते हैं।जो गुण ज्यादा होजाता है वह उस पल मन को अपने कब्ज़े में ले लेता है।
जब सत गुण (अच्छाई ,नैतिकता ,गुडनेस )ऊपर आजाता है मन कहता है भगवान् ने मुझपर बड़ी मेहरबानी कर रखी है।उसी की कृपा
से सब हो रहा है। मानव जीवन अनमोल है संसार के पदार्थों में अटका व्यर्थ न हो जाए ,कौड़ी बदले चला न जाए। चलो मंदिर चलते हैं
ध्यान में बैठते हैं। भजन सुनते हैं।
जब रजो गुण ((आकर्षण जगत का ,तीव्र कामवासना ,भावावेश ,पैशन ,Passion )अपना प्रभुत्व कायम कर लेता है मन कहता है :
फुर्सत मिली तो जाना ,सब काम हैं अधूरे ,
क्या -क्या करें जहां में दो हाथ आदमी के।
अभी तो बहुत काम मुझे करने हैं ,पूजा पाठ को उम्र पड़ी है। चलो भागो क्रेडिट कार्ड की लास्ट डेट निकल रही है। जुर्माना भरना पड़ेगा।
चलो बैंक चलो। ड्राप बाक्स में चेक छोड़ो।
तमो गुण (अज्ञान )के हावी होने पर मन कहता है : भगवान् वगवान ?हैं भी कहीं ?है तो दिखलाओ ?क्या किसी ने देखा भी है भगवान्।
अप्रशिक्षित मन की यही स्वाभाविक गति होती है। मन को ट्रेन करना पड़ता है। यदि मन (24x7 )ऊर्ध्वगामी ही रहे ,अच्छा ही अच्छा
सोचे फिर साधना पूजा अर्चना की ज़रुरत ही क्या रह जायेगी ? साधना का मतलब ही है विचार सरणी की दिशा बदलना। इसे तीन
गुणों की गिरिफ्त से निकाल प्रभु की ओर मोड़ना। गुरु की ओर ले जाना। मन है तो जगत की तरफ भागेगा ही लेकिन एक बार इसको
ड्राइव करना ,हांकना सीख लिया फिर यह काम उतना ही आसान हो जाएगा जैसे कारचलाना सीख लेने के बाद कार चलाना आसान
हो जाता है। हालाकि सड़क पर ट्रेफिक भी होता है फिर भी आप साथ वाली सवारी से मज़े से बतियाते रहते हैं।
दिक्कत कहाँ है ?
दरसल हमने स्वयं को मन ही मान लिया है।
इसीलिए मन अपनी मनमानी करता है। बस हम उसके पीछे -पीछे चल देते हैं।मन की ही
सुनते हैं। चाहे फिर वह हमें दोजख में ही ले जाए। इसीलिए हम गुरु की हेटी होते देख भी उसे अनदेखा कर देते हैं। यदि ठीक उसी वक्त
हम इस लिटिल मंकी को अपने से अलग मान लें , फ़ौरन उसे घुड़क दें। मैं कोई भी ऐसा काम नहीं करूंगा जो मेरे ध्यान में व्यवधान
डालेगा। भगवान् की तौहीन करेगा।
जगदगुरुकृपालुजी महाराज कहते हैं :
मन को मानो शत्रु उसकी ,सुनहु जनि कछु प्यारे।
(साधना करूँ प्यारे )
"Declare war on your mind .Do the opposite of what it says
,and soon it will stop bothering you ."
जगदगुरुशंकराचार्य ने इससे भी आगे निकलके पूछा था :
जगत जितं केन ?मनो ही येन।
इस जगत पर विजय कौन प्राप्त करेगा ?वही जो मन को जीत लेगा। विनय पत्रिका के हर तीसरे पद में तुलसीदास अपने मन को ही
फटकारते रहते हैं।
इसलिए चिंता नहीं करनी है हताश नहीं होना है तत्व ज्ञान का कवच पहन बैठना है ध्यान में। गुरु मन्त्र याद रखना है। मैं मन नहीं हूँ।
ये मन मेरा है। मैं इसका स्वामी हूँ।
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