ब्रह्म ,परमात्मा और भगवान्
ईश्वर परिपूर्ण है अक्षय ऊर्जा का स्रोत है। दिव्य उनका रूप है ,दिव्य नाम और दिव्य धाम ,साथी और सखा, दिव्य उनकी लीलाएं हैं। अनेकरूपा ईश्वर अपरम्पार है। अलग अलग नैकट्य का बोध होता है अनुभूति होती है ब्रह्म ,परमात्मा और भगवान् के सिमरन से।
श्रीमदभगवाद गीता कहती है -
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्तवं यज्ज्ञानमद्वयं ,
ब्रह्मोति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते।
विद्वान महर्षि वेदव्यास कहते हैं :ईश्वर (सुप्रीम लार्ड )का प्राकट्य इस सृष्टि में तीन मार्गों से होता है -ब्रह्म ,परमात्मा और भगवान् रूप में। ये तीन अलग -अलग ईश्वर न होकर एक ही ईश्वर के तीन प्राकट्य हैं। भले इनके गुणों में वैभिन्न्य है। जैसे तत्व तो एक जल ही है लेकिन उसके तीन रूपों जल ,भाप और हिम (बरफ )के भौतिक गुण अलग अलग हैं।
आप किसी प्यासे व्यक्ति को बर्फ की क्यूब्स देकर देखिये -बड़े कौतुक से देखेगा आपको कहते हुए -ये क्या है मैंने पानी माँगा था
प्यास बुझाने के लिए। बर्फ से मेरी प्यास नहीं बुझेगी।
ब्रह्म :
जो सर्वत्र व्याप्त है निराकार रूप में वह ब्रह्म है।
एको देव : सर्वभूतेषु गूढ : सर्वव्यापी (श्वेताश्वतर उपनिषद ६. ११ )
ईश्वर एक ही है जो हमसबके हृदय में निवास करता है इस सृष्टि के प्रत्येक कण में भी उसका वास है। इस सर्वव्यापकत्व में ईश्वर अपने विभिन्न रूपाकारों ,गुण धर्मों को लीलाओं को प्रकट नहीं करता है।बस वह सनातन रूप में होता है अपना नैरन्तर्य लिए ,ज्ञान और आनंद लिए।
आप कहेंगे फिर दिखाई क्यों नहीं देता है। आपकी आत्मा भी आपको कहाँ दिखाई देती है। आत्मा और परमात्मा दिव्य ऊर्जा हैं। जबकि हमारी इन्द्रियाँ मैटीरियल एनर्जी का ज़मा जोड़ हैं। चरम चक्षु नहीं ज्ञान चक्षु तीसरा नेत्र चाहिए ज्ञान का उसे देखने अनुभूत करने के लिए।
एक उद्धहरण लेते हैं दो चींटियों का इनमें से एक के मुंह में नमक की कनिका थी जिसे मुंह में थामे हुए वह चीनी के एक ढेर पे चलती जा रही थी। उसके साथ एक चींटी और भी चल रही थी लेकिन उसका मुंह खाली था। लौटते वक्त दूसरी चींटी बोली -आज मैंने इत्ती चींनी खाई कि मेरा पेट भी चीनी चीनी हो रहा है। पहली वाली आश्चर्य के साथ बोली क्या कहती हो बहन हम तो नमक के ढेर पे चढ़ रहे थे। चीनी कहाँ थी वहां। पहली चींटी झूठ नहीं बोल रही है उसके मुंह में तो नमक की किनकी थी उसे चीनी का स्वाद कहाँ से आता ?
इसीप्रकार ईशवर ब्रह्म रूप में इस कायनात में व्याप्त तो है लेकिन हमारी इन्द्रियाँ पदार्थीय ऊर्जा से निर्मित हैं ब्रह्म को किस विध देखें जो दिव्य ऊर्जा है।
ज्ञानयोग का मार्ग इस निराकार ब्रह्म की अनुभूति गहन कठोर साधना के बाद करवा सकता है। वह भी बस ऐसे जैसे बहुत दूर से आती ट्रेन प्लेटफार्म पे खड़े प्रतीक्षारत यात्री को महज़ एक प्रकाश की धुंध सी टिमटिमाहट सी लगती है।जब बिलकुल पास आजाती है तब ही बोध होता है अरे ये तो पूरी खचाखाच भरी ट्रेन है।
परमात्मा :
ईश्वर : सर्वभूतानां हृद्देशेर्जुन तिष्ठति (भगवद गीता १८. ६१ )
श्रीकृष्ण कहतें हैं अर्जुन -ईश्वर सभी जीवित प्राणियों के हृदय में विराजता है। वह हमारे कर्मों का ही नहीं विचारों का भी पूरा हिसाब किताब रखता है और उचित समय पर इसका फल भी प्रदान करता है। हम भले कुछ भूल जाए उसे हमारे जन्म के बाद का पल- पल का किस्सा याद रहता है।जन्मजन्मान्तरों से उसका हमारा यूं ही हर पल का संग साथ चला आ रहा है.
बस यही परमात्मा है जिसका रूप और गुण दोनों हैं लेकिन इस स्वरूप में उसकी लीलाएं प्रकट नहीं हैं। अष्टांग योग का साधक उसकी अनुभूति कर सकता लेकिन वैसे ही जैसे दूर से आती हुई ट्रेन बस अब थोड़ा सा और हमारी तरफ चली आई हो अपने कोमल प्रकाश के साथ चमकती हिलती हुई। सिमरिंग लाईट सी।
भगवान् :
कृष्णमेनमवेही त्वमात्मान -मखिलात्मनाम ,
जगद्विताय सोप्यत्र देहीवाभाति मायया। (श्रीमद भागवतम १०.१४. ५५ )
वह परम शक्ति सुप्रीम लार्ड जो सर्व आत्माओं की आत्मा है श्रीकृष्ण के रूप में जग कल्याण के लिए अवतरित (प्रकट )हुई।नाम रूप ,गुण धर्म ,बंधू सखा सब और धाम जिनका भव्य (दिव्य )है वह पर्सनल फॉर्म (भगवान् )है।
ये दिव्य गुण होते ब्रह्म में भी हैं,परमात्मा भी होतें हैं लेकिन प्रगटित नहीं होते हैं। छिपे रहते हैं जैसे माचिस की तीली में आग तब ही प्रगटित होती है जब उसे माचिस की मसाले वाली आग्नेय साइड (स्ट्रिप )से रगड़ा जाए।
भक्ति मार्ग आनंद का मार्ग इसीलिए हैं यहाँ भगवान् की प्रगाढ़ अनुभूति होती है प्रेमानंद की स्थिति आती है भक्ति के शिखर पर। जैसे रेलगाड़ी प्लेटफोर्म पर आ गई हो खचाखच यात्रियों से भरी हुई।ब्रह्म से ब्रह्मानंद की अनुभूति होती है साधक को।
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत : ,
ततो मामं ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम (भगवद गीता १८. .५५ )
भगवान् (श्रीकृष्ण )कहते हैं भक्ति के द्वारा ही व्यक्ति मुझे प्राप्त होता है। केवल भक्ति के द्वारा ही मेरे इस रूप को जस का तस देखा जा सकता है जैसे मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूँ।
प्रेमानंद और ब्रह्मानंद में उतना ही अंतर है जितना कैंडी और गुड़ में। मिठास प्रेमानंद में ज्यादा है। इसे ही परमानंद की स्थिति भी कह दिया जाता है।
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