क्या कहते हैं भारत के महान संत भक्ति और ज्ञान के विषय में
नित्य सिद्ध महापुरुष धरा पर अवतरित हुए हैं देशकाल और पात्र (time
,place and circumstance )के अनुरूप ही जिन्होनें सन्देश दिए हैं।
शिक्षक कक्षा १ के छात्र को पांच में से तीन गए बचे दो -पांच माइन्स (नफी
-)तीन (५ -३ ) बराबर दो ही पढ़ायेगा भले वह स्वयं डी.लिट हो। इसका
मतलब यह नहीं है शिक्षक को इतना ही आता है लेकिन यह है की इस स्तर
का छात्र सरल जोड़ घटा ही समझ सकता है। यह सीमा शिक्षक की नहीं है
शिक्षार्थी की है।
शंकराचार्य से भी पहले गौतम बुद्ध आये। इन्हें भगवानविष्णु का अवतार
समझा जाता है और इसलिए भगवान बुद्ध हिन्दुओं के लिए पूज्य हैं।
लेकिन आपने वेदों का बखान नहीं किया। वेदों का अंतिम सत्य नहीं कहा
तो इसकी वजह उस समय की सामाजिक राजनीतिक परिस्थिति ही थी।
लोग वेदों की आड़ में उद्धरण दे देकर बेहद की हिंसा (पशु बली आदि )पर
उतारु थे। तत्कालीन लोगों का पूरा आग्रह कर्मकाण्ड पर था हृदय की
शुचिता के उनके लिए कोई मानी नहीं थे। इसीलिए बुद्ध ने वेदों की बात
नहीं की वरना वही लोग कहते उनकी व्याख्या बुद्ध से ज्यादा सटीक है।
इसीलिए गौतम बुद्ध ने तात्कालीन समाज को प्राणि मात्र के प्रति दया और
करुणा का, अहिंसा का सन्देश दिया।
संसार की असारता की ओर विरक्ति की ओर उन्होंने लोगों का ध्यान
खींचा।
कहा : यहाँ नित्य कुछ भी नहीं है।
शंकराचार्य के आते आते बौद्ध दर्शन पूरे भारतवर्ष में प्रसार पा चुका था।
शून्यवाद का बोलबाला था। लोग आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व को
नकारने लगे थे। ईश्वर को नहीं मानते थे।नास्तिकता हावी थी लोगों पर
ऐसे में राम और कृष्ण की भक्ति का क्या मतलब था। उनके दिव्य स्वरूप
का दुर्लभ चरित्र का बखान सुनने वाला वहां कोई नहीं था।
शंकराचार्य लोगों को लाये वेदों की तरफ ही लेकिन इस तरह से कि उन्हें
इसका इल्म भी न हो। इसलिए उन्होंने निर्गुण निराकारी सर्वव्यापी ,सर्वज्ञ
ब्रह्म की बात की। सर्वव्यापक होने के लिए ब्रह्म का निराकार होना भी
ज़रूरी था। लेकिन स्वयं शंकराचार्य रूप ध्यान ,प्रभु के सगुण साकार श्याम
स्वरूप के उपासक थे अनन्य भक्त थे। भक्ति सम्बन्धी आपके अनेक
श्लोक आज भी उपलब्ध हैं।
देखिये उनके और उनके शिष्य जनों के बीच संवाद प्रश्नोत्तरी :
शिष्य :मुमुक्षुणा किं त्वरितं विधेयम् ?अर्थात मोक्ष कामी आत्मा
युक्तिपूर्वक दृढनिश्चय के साथ इसकी प्राप्ति के लिए क्या करे ?
शंकराचार्य :सत्संगतिर निर्मम तेष भक्तिहिः ।
अर्थात उसे अपना मन पदार्थ से विरक्त हो ,पदार्थ से भौतिक जगत के
साधनों से हटाके भगवान् की भक्ति में लगाना चाहिए।
शिष्य :किं कर्म कृत्वा नहि शोचनियम ?
अर्थात वह कौन सा कार्य है जिसे करने के बाद बाद में पछतावा नहीं
होता ?
शंकराचार्य : कामारि कंसारि समर्चनाख्यम् ।
अर्थात उसे बाद में पछताना नहीं पड़ता जो केवल श्रीकृष्ण की
उपासना (अनन्य भक्ति )में ही बस ध्यान लगाता है।
ये वही शंकराचार्य थे जिन्होनें अद्वैतवाद की स्थापना की थी। आपने
अपनी माँ को श्रीकृष्ण की भक्ति के लिए न सिर्फ प्रेरित किया उन पर
ऐसी कृपा भी की जो वह कृष्ण को प्राप्त हो जाएँ।
उनकी कुछ अन्य सार्वजनिक उद्घोषनाओं पर भी दृष्टि पात कर लें :
अस्माकं यदुनन्दनांघ्रियगलध्यानावधानार्थिनाम् ।
किं लोकेन दमेन किं नृपतिनां स्वर्गापवर्गैश्च किंम् ।।
“Those who perform the ritualistic activities described in the Vedas for the attainment of the heavenly planets, and
those who engage in the sadhanas of Gyan and Yog for the attainment of impersonal liberation, are both
unintelligent. They may do as they wish, but I desire neither heaven nor liberation. I only wish to drink the nectar
emanating from the lotus feet of the Supremely Blissful form of Shree Krishna. I am a Rasik who is anxious for
the Bliss of Divine Love.”
Reference material :jkyog.org
http://www.youtube.com/results?search_query=kripalujimaharaj+pravachan+&oq=kripalujimaharaj+pravachan+&gs_l=youtube.3...2365.13838.0.14722.27.26.0.1.1.0.177.2156.20j6.26.0...0.0
नित्य सिद्ध महापुरुष धरा पर अवतरित हुए हैं देशकाल और पात्र (time
,place and circumstance )के अनुरूप ही जिन्होनें सन्देश दिए हैं।
शिक्षक कक्षा १ के छात्र को पांच में से तीन गए बचे दो -पांच माइन्स (नफी
-)तीन (५ -३ ) बराबर दो ही पढ़ायेगा भले वह स्वयं डी.लिट हो। इसका
मतलब यह नहीं है शिक्षक को इतना ही आता है लेकिन यह है की इस स्तर
का छात्र सरल जोड़ घटा ही समझ सकता है। यह सीमा शिक्षक की नहीं है
शिक्षार्थी की है।
शंकराचार्य से भी पहले गौतम बुद्ध आये। इन्हें भगवानविष्णु का अवतार
समझा जाता है और इसलिए भगवान बुद्ध हिन्दुओं के लिए पूज्य हैं।
लेकिन आपने वेदों का बखान नहीं किया। वेदों का अंतिम सत्य नहीं कहा
तो इसकी वजह उस समय की सामाजिक राजनीतिक परिस्थिति ही थी।
लोग वेदों की आड़ में उद्धरण दे देकर बेहद की हिंसा (पशु बली आदि )पर
उतारु थे। तत्कालीन लोगों का पूरा आग्रह कर्मकाण्ड पर था हृदय की
शुचिता के उनके लिए कोई मानी नहीं थे। इसीलिए बुद्ध ने वेदों की बात
नहीं की वरना वही लोग कहते उनकी व्याख्या बुद्ध से ज्यादा सटीक है।
इसीलिए गौतम बुद्ध ने तात्कालीन समाज को प्राणि मात्र के प्रति दया और
करुणा का, अहिंसा का सन्देश दिया।
संसार की असारता की ओर विरक्ति की ओर उन्होंने लोगों का ध्यान
खींचा।
कहा : यहाँ नित्य कुछ भी नहीं है।
शंकराचार्य के आते आते बौद्ध दर्शन पूरे भारतवर्ष में प्रसार पा चुका था।
शून्यवाद का बोलबाला था। लोग आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व को
नकारने लगे थे। ईश्वर को नहीं मानते थे।नास्तिकता हावी थी लोगों पर
ऐसे में राम और कृष्ण की भक्ति का क्या मतलब था। उनके दिव्य स्वरूप
का दुर्लभ चरित्र का बखान सुनने वाला वहां कोई नहीं था।
शंकराचार्य लोगों को लाये वेदों की तरफ ही लेकिन इस तरह से कि उन्हें
इसका इल्म भी न हो। इसलिए उन्होंने निर्गुण निराकारी सर्वव्यापी ,सर्वज्ञ
ब्रह्म की बात की। सर्वव्यापक होने के लिए ब्रह्म का निराकार होना भी
ज़रूरी था। लेकिन स्वयं शंकराचार्य रूप ध्यान ,प्रभु के सगुण साकार श्याम
स्वरूप के उपासक थे अनन्य भक्त थे। भक्ति सम्बन्धी आपके अनेक
श्लोक आज भी उपलब्ध हैं।
देखिये उनके और उनके शिष्य जनों के बीच संवाद प्रश्नोत्तरी :
शिष्य :मुमुक्षुणा किं त्वरितं विधेयम् ?अर्थात मोक्ष कामी आत्मा
युक्तिपूर्वक दृढनिश्चय के साथ इसकी प्राप्ति के लिए क्या करे ?
शंकराचार्य :सत्संगतिर निर्मम तेष भक्तिहिः ।
अर्थात उसे अपना मन पदार्थ से विरक्त हो ,पदार्थ से भौतिक जगत के
साधनों से हटाके भगवान् की भक्ति में लगाना चाहिए।
शिष्य :किं कर्म कृत्वा नहि शोचनियम ?
अर्थात वह कौन सा कार्य है जिसे करने के बाद बाद में पछतावा नहीं
होता ?
शंकराचार्य : कामारि कंसारि समर्चनाख्यम् ।
अर्थात उसे बाद में पछताना नहीं पड़ता जो केवल श्रीकृष्ण की
उपासना (अनन्य भक्ति )में ही बस ध्यान लगाता है।
ये वही शंकराचार्य थे जिन्होनें अद्वैतवाद की स्थापना की थी। आपने
अपनी माँ को श्रीकृष्ण की भक्ति के लिए न सिर्फ प्रेरित किया उन पर
ऐसी कृपा भी की जो वह कृष्ण को प्राप्त हो जाएँ।
उनकी कुछ अन्य सार्वजनिक उद्घोषनाओं पर भी दृष्टि पात कर लें :
काम्योपासनयान्तयर्थनुदिनं किंचित्फलं स्वेप्सितं ।
केचित् स्वर्गमथापवर्ग मपरे योगादियज्ञादिभिः ।।
अस्माकं यदुनन्दनांघ्रियगलध्यानावधानार्थिनाम् ।
किं लोकेन दमेन किं नृपतिनां स्वर्गापवर्गैश्च किंम् ।।
those who engage in the sadhanas of Gyan and Yog for the attainment of impersonal liberation, are both
unintelligent. They may do as they wish, but I desire neither heaven nor liberation. I only wish to drink the nectar
emanating from the lotus feet of the Supremely Blissful form of Shree Krishna. I am a Rasik who is anxious for
the Bliss of Divine Love.”
Reference material :jkyog.org
http://www.youtube.com/results?search_query=kripalujimaharaj+pravachan+&oq=kripalujimaharaj+pravachan+&gs_l=youtube.3...2365.13838.0.14722.27.26.0.1.1.0.177.2156.20j6.26.0...0.0
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार (22-10-2013) मंगलवारीय चर्चा---1406- करवाचौथ की बधाई में "मयंक का कोना" पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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करवा चौथ की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'