हिंदी भाषा का साहित्य-सृजन महानगरों में केंद्रित हो
जाने से उन रचनाकारों का बड़ा नुकसान हुआ, जिनका जीवन व लेखन
साहित्यिक मानदंडों पर ज्यादा खरा उतरता था और जिनके लिए साहित्य व्यवसाय
नहीं, बस जुनून था. अपेक्षित प्रचार-प्रसार के अभाव में उनका मूल्यवान लेखन
या तो अप्रकाशित रह गया या छप कर भी जिज्ञासु पाठकों तक नहीं पहुंच पाया.
ऐसे में, अयोध्या के पास गोसाईंगंज के आचार्य नरेंद्रदेव उत्तर माध्यमिक
विद्यालय में हिंदी अध्यापक की सामान्य जीविका अपनाकर आजीवन विशिष्ट
साहित्य-साधना में लगे सुकवि पं सत्यनारायण द्विवेदी ‘श्रीश’ का स्मरण
स्वाभाविक है, क्योंकि आज उनका 93वां जन्मदिवस है.
12 अक्तूबर, 1920 को मालीपुर (अकबरपुर) के पास छोटे-से सेठवा गांव में, श्लोकों और छंदों के मर्मज्ञ और आर्थिक साधनों से संपन्न पंडित हरिप्रसाद द्विवेदी के प्रथम पुत्र के रूप में, तमाम जप-तप के बाद, उनका जन्म हुआ था और लगभग 92 वर्ष का सक्रिय जीवन जीने के उपरांत 26 फरवरी, 2012 को वे दूसरे लोक में साहित्य-चर्चा करने चले गये. हिंदी, ब्रज, संस्कृत और फारसी की बुनियादी शिक्षा उन्हें घर पर ही विभिन्न शिक्षकों से मिली. ‘श्रीश’ जी का हस्तलेख मुद्रित अक्षरों को भी मात देता था. वैसे ही उनकी वाणी भी जादुई थी. उनकी भाषा गांधीजी की बकरी की तरह उनके पीछे-पीछे चलती थी. शब्दर्षि और साहित्य-सुदामा जैसे विशेषणों से अर्चित ‘श्रीश’ जी अपने समय में पूरे अवध-क्षेत्र में ‘कवियों के कवि’ माने जाते थे. उन्होंने न जाने कितने होनहार कवियों को समुचित मार्ग-दर्शन और काव्य-मंच देकर आगे बढ़ाया; न जाने कितने छात्र-छात्राओं में कविता के प्रति रुझान पैदा की और न जाने कितने कवि सम्मेलनों का आयोजन कर समाज में सरस वातावरण रच कर शुद्ध छंदोबद्ध कविता की अलख जगायी. वे हर साल अपने विद्यालय पर तो कवि सम्मेलन कराते ही थे, आसपास के इलाकों में भी पचासों कवि सम्मेलन आयोजित करा डालते थे. देश के बड़े-से-बड़े कवि उनको जानते और मानते थे. कभी-कभी तो आहूत-अनाहूत-रवाहूत कवियों की संख्या 50 को पार कर जाती थी. वे सभी कवियों को पारिश्रमिक देते थे, मगर ‘अल्प से किंचित् न्यून’ कह कर. वे पहले से कोई राशि तय नहीं करते थे, क्योंकि उन्हें खुद पूंजी का अनुमान नहीं होता था. आयोजन के बाद जो राशि संगृहित होती, उसे ही अत्यंत प्रेम और विनम्रता-पूर्वक सबको बांट देते थे. कम पड़ने पर अपने पास से भी लगा देते. जो कवि सम्मेलन अन्यों द्वारा दस हजार में होता, वह उनके संयोजन में दो हजार में ही निबट जाता. कवि सम्मेलन को चिरायु रखने के लिए वे कवियों का पारिश्रमिक ‘अल्प से किंचित् न्यून’ रखने के पक्षधर थे. उनका चरित्र इतना पारदर्शी और व्यवहार इतना मधुर था कि कोई ना नहीं करता. ‘श्रीश’ जी का मानना था (जो आज सही साबित हो रहा है) कि कम पारिश्रमिक देने पर साधक कवि ही कष्ट करके आयेंगे. अधिक पारिश्रमिक देने से काव्यमंच बाजार बन जायेगा और कविता मंच से दूर चली जायेगी.
छात्रवस्था में ‘श्रीश’ जी इतिहास, भूगोल आदि को भी छंदोबद्ध कर स्मरणीय बना लेते थे, जिसका उपयोग अन्य सहपाठी भी करते थे. उनकी पहली कविता अमेठी से निकलनेवाली पत्रिका ‘मनस्वी’ में और पहली कहानी ‘नरेश’ 6 दिसंबर,1945 को ‘आज’ वाराणसी में छपी थी. उन्होंने ब्रजभाषा के छंदों के अलावा संस्कृत छंदों में काव्य-रचना का भी पूरा अभ्यास किया. जब वे 22 वर्ष के हुए, तब तक परिवार की आर्थिक स्थिति गिर चुकी थी और नौकरी करने के लिए उन्हें गांव छोड़ कर कानपुर जाना पड़ा; मगर वहां उनका मन नहीं लगा. वे घर लौटने की मन:स्थिति में इलाहाबाद उतर गये. वहां डॉ रामकुमार वर्मा के घर का पता पूछते हुए वे उनके पास पहुंचे और उनके यहां रह कर उनकी कविताओं, नाटकों की प्रतिलिपि तैयार करने लगे. एक दिन वे डॉ उदय नारायण तिवारी के घर पर मिलने गये. उस समय महापंडित राहुल सांकृत्यायन ‘किताब महल’ में रहते थे. उन्हें एक लेखक की आवश्यकता थी, जो उनसे श्रुतिलेख ले सके. तिवारी जी ने अपने पत्र के साथ ‘श्रीश’ जी को राहुल जी के पास भेजा. राहुल जी ने ‘श्रीश’ जी के सुंदर और शुद्ध हस्तलेख को देख कर उन्हें अपने पास रख लिया. राहुल जी के साथ रहते हुए भी परम वैष्णव होने के कारण ‘श्रीश’ जी अपना भोजन अलग बनाते. अनीश्वरवादी राहुल जी आमिषभोजी थे, जबकि रामभक्त ‘श्रीश’ जी प्याज-लहसुन की गंध से भी दूर भागते थे. जब राहुल जी रूस जाने लगे, तब उन्होंने ‘श्रीश’ जी से साथ चलने का बहुत आग्रह किया, मगर ये ‘म्लेच्छ देश’ में जाने को तैयार नहीं हुए. हार कर, राहुल जी ने हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के साहित्य मंत्री श्री रामनाथ लाल ‘सुमन’ से (‘पहल’ संपादक, कथाकार श्री ज्ञानरंजन जी के पिता) कह कर सम्मेलन के साहित्य विभाग में इन्हें स्थान दिला दिया. रहने के लिए नागार्जुन जी का आवास इन्हें उपयुक्त लगा, क्योंकि उनसे इनकी घनिष्ठता हो गयी थी. साथ रहते हुए ये अनेक बार नागाजरुन जी के तरौनी (दरभंगा जनपद) गांव भी हो आये थे. मिथिला और अवध के सांस्कृतिक संबंध ने आचार-विचार में भिन्नता के बावजूद दोनों साहित्यकारों को कस कर बांध दिया था. बाद में एक स्नेहामंत्रण पर वे प्रयाग छोड़ कर गोसाईंगंज चले गये, साहित्य का अध्यापन करने. अपनी निरंतर साहित्य-साधना से उन्होंने गोसाईंगंज को ही ‘साहित्य-तीर्थ’ में बदल दिया. ‘श्रीश’ जी की मात्र चार काव्य-कृतियां, काव्यप्रेमियों की आर्थिक सहायता से, प्रकाशित हुईं, ‘संकल्प’ (1952), ‘सुभाष की विभा’ (1952), गीतिकल्प (1989) और उनके पुत्र, सुकवि श्री प्रकाश द्विवेदी द्वारा संपादित और भारती परिषद्, प्रयाग से प्रकाशित ‘कविता काकली’(2006). आजीवन परोपकार में व्यस्त रहने और अपने व्यक्तिगत जीवन तथा साहित्य के प्रति अत्यंत उदासीन होने के कारण उनके ‘द्रोणाचार्य’ महाकाव्य की पांडुलिपि भी कहीं लुप्त हो गयी. उनकी ही कुछ पंक्तियों से उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित है :-
छीनता वसंत वृक्ष के पुराने पत्ते है तो,
उसको नवीन परिधान से सजाता है।
भर देता डाली सुरभित सुमनों से ‘श्रीश’,
सुखद सुगंध देश-देश बगराता है।।
12 अक्तूबर, 1920 को मालीपुर (अकबरपुर) के पास छोटे-से सेठवा गांव में, श्लोकों और छंदों के मर्मज्ञ और आर्थिक साधनों से संपन्न पंडित हरिप्रसाद द्विवेदी के प्रथम पुत्र के रूप में, तमाम जप-तप के बाद, उनका जन्म हुआ था और लगभग 92 वर्ष का सक्रिय जीवन जीने के उपरांत 26 फरवरी, 2012 को वे दूसरे लोक में साहित्य-चर्चा करने चले गये. हिंदी, ब्रज, संस्कृत और फारसी की बुनियादी शिक्षा उन्हें घर पर ही विभिन्न शिक्षकों से मिली. ‘श्रीश’ जी का हस्तलेख मुद्रित अक्षरों को भी मात देता था. वैसे ही उनकी वाणी भी जादुई थी. उनकी भाषा गांधीजी की बकरी की तरह उनके पीछे-पीछे चलती थी. शब्दर्षि और साहित्य-सुदामा जैसे विशेषणों से अर्चित ‘श्रीश’ जी अपने समय में पूरे अवध-क्षेत्र में ‘कवियों के कवि’ माने जाते थे. उन्होंने न जाने कितने होनहार कवियों को समुचित मार्ग-दर्शन और काव्य-मंच देकर आगे बढ़ाया; न जाने कितने छात्र-छात्राओं में कविता के प्रति रुझान पैदा की और न जाने कितने कवि सम्मेलनों का आयोजन कर समाज में सरस वातावरण रच कर शुद्ध छंदोबद्ध कविता की अलख जगायी. वे हर साल अपने विद्यालय पर तो कवि सम्मेलन कराते ही थे, आसपास के इलाकों में भी पचासों कवि सम्मेलन आयोजित करा डालते थे. देश के बड़े-से-बड़े कवि उनको जानते और मानते थे. कभी-कभी तो आहूत-अनाहूत-रवाहूत कवियों की संख्या 50 को पार कर जाती थी. वे सभी कवियों को पारिश्रमिक देते थे, मगर ‘अल्प से किंचित् न्यून’ कह कर. वे पहले से कोई राशि तय नहीं करते थे, क्योंकि उन्हें खुद पूंजी का अनुमान नहीं होता था. आयोजन के बाद जो राशि संगृहित होती, उसे ही अत्यंत प्रेम और विनम्रता-पूर्वक सबको बांट देते थे. कम पड़ने पर अपने पास से भी लगा देते. जो कवि सम्मेलन अन्यों द्वारा दस हजार में होता, वह उनके संयोजन में दो हजार में ही निबट जाता. कवि सम्मेलन को चिरायु रखने के लिए वे कवियों का पारिश्रमिक ‘अल्प से किंचित् न्यून’ रखने के पक्षधर थे. उनका चरित्र इतना पारदर्शी और व्यवहार इतना मधुर था कि कोई ना नहीं करता. ‘श्रीश’ जी का मानना था (जो आज सही साबित हो रहा है) कि कम पारिश्रमिक देने पर साधक कवि ही कष्ट करके आयेंगे. अधिक पारिश्रमिक देने से काव्यमंच बाजार बन जायेगा और कविता मंच से दूर चली जायेगी.
छात्रवस्था में ‘श्रीश’ जी इतिहास, भूगोल आदि को भी छंदोबद्ध कर स्मरणीय बना लेते थे, जिसका उपयोग अन्य सहपाठी भी करते थे. उनकी पहली कविता अमेठी से निकलनेवाली पत्रिका ‘मनस्वी’ में और पहली कहानी ‘नरेश’ 6 दिसंबर,1945 को ‘आज’ वाराणसी में छपी थी. उन्होंने ब्रजभाषा के छंदों के अलावा संस्कृत छंदों में काव्य-रचना का भी पूरा अभ्यास किया. जब वे 22 वर्ष के हुए, तब तक परिवार की आर्थिक स्थिति गिर चुकी थी और नौकरी करने के लिए उन्हें गांव छोड़ कर कानपुर जाना पड़ा; मगर वहां उनका मन नहीं लगा. वे घर लौटने की मन:स्थिति में इलाहाबाद उतर गये. वहां डॉ रामकुमार वर्मा के घर का पता पूछते हुए वे उनके पास पहुंचे और उनके यहां रह कर उनकी कविताओं, नाटकों की प्रतिलिपि तैयार करने लगे. एक दिन वे डॉ उदय नारायण तिवारी के घर पर मिलने गये. उस समय महापंडित राहुल सांकृत्यायन ‘किताब महल’ में रहते थे. उन्हें एक लेखक की आवश्यकता थी, जो उनसे श्रुतिलेख ले सके. तिवारी जी ने अपने पत्र के साथ ‘श्रीश’ जी को राहुल जी के पास भेजा. राहुल जी ने ‘श्रीश’ जी के सुंदर और शुद्ध हस्तलेख को देख कर उन्हें अपने पास रख लिया. राहुल जी के साथ रहते हुए भी परम वैष्णव होने के कारण ‘श्रीश’ जी अपना भोजन अलग बनाते. अनीश्वरवादी राहुल जी आमिषभोजी थे, जबकि रामभक्त ‘श्रीश’ जी प्याज-लहसुन की गंध से भी दूर भागते थे. जब राहुल जी रूस जाने लगे, तब उन्होंने ‘श्रीश’ जी से साथ चलने का बहुत आग्रह किया, मगर ये ‘म्लेच्छ देश’ में जाने को तैयार नहीं हुए. हार कर, राहुल जी ने हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के साहित्य मंत्री श्री रामनाथ लाल ‘सुमन’ से (‘पहल’ संपादक, कथाकार श्री ज्ञानरंजन जी के पिता) कह कर सम्मेलन के साहित्य विभाग में इन्हें स्थान दिला दिया. रहने के लिए नागार्जुन जी का आवास इन्हें उपयुक्त लगा, क्योंकि उनसे इनकी घनिष्ठता हो गयी थी. साथ रहते हुए ये अनेक बार नागाजरुन जी के तरौनी (दरभंगा जनपद) गांव भी हो आये थे. मिथिला और अवध के सांस्कृतिक संबंध ने आचार-विचार में भिन्नता के बावजूद दोनों साहित्यकारों को कस कर बांध दिया था. बाद में एक स्नेहामंत्रण पर वे प्रयाग छोड़ कर गोसाईंगंज चले गये, साहित्य का अध्यापन करने. अपनी निरंतर साहित्य-साधना से उन्होंने गोसाईंगंज को ही ‘साहित्य-तीर्थ’ में बदल दिया. ‘श्रीश’ जी की मात्र चार काव्य-कृतियां, काव्यप्रेमियों की आर्थिक सहायता से, प्रकाशित हुईं, ‘संकल्प’ (1952), ‘सुभाष की विभा’ (1952), गीतिकल्प (1989) और उनके पुत्र, सुकवि श्री प्रकाश द्विवेदी द्वारा संपादित और भारती परिषद्, प्रयाग से प्रकाशित ‘कविता काकली’(2006). आजीवन परोपकार में व्यस्त रहने और अपने व्यक्तिगत जीवन तथा साहित्य के प्रति अत्यंत उदासीन होने के कारण उनके ‘द्रोणाचार्य’ महाकाव्य की पांडुलिपि भी कहीं लुप्त हो गयी. उनकी ही कुछ पंक्तियों से उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित है :-
छीनता वसंत वृक्ष के पुराने पत्ते है तो,
उसको नवीन परिधान से सजाता है।
भर देता डाली सुरभित सुमनों से ‘श्रीश’,
सुखद सुगंध देश-देश बगराता है।।
श्रीश जी के बारे में जानकार अच्छा लगा !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (13-10-2013) आँचल में है दूध : चर्चा मंच -1397 में "मयंक का कोना" पर भी है!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का उपयोग किसी पत्रिका में किया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंरमेश पाण्डेय