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शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

प्रतिघात


मेरे मन में वेदना है
विस्मृत सी अर्चना है ;
आँखे ढकी हैं मेरी
मुझे विश्व देखना है.
नयनो पे है संकट
पलकें गिरी हुई हैं;
कुछ विम्ब भी न दिखता
दृष्टि बुझी- बुझी है.

संध्या भी बढ़ रही है
मुझे सूर्य रोकना है,
इस अन्धकार जग में,
नया तूर्य खोजना है.
नैराश्य की दिशा में ,
अब विश्व चल पड़ा है
नेत्र हीन होकर
बस युद्ध कर रहा है.
न मानव है कहीं पर
मानवता न शेष अब है,
आतंक के प्रहर में
भयभीत अब सब हैं.
कोई उपाय है जो
शान्ति को बचा ले?
भूले हुए पथिक को,
इक मार्ग फिर दिखा दे.
परिणाम हीन पथ पथ पर
क्यों बढ़ रहे कदम कुछ?
ये विषाक्त मानव
क्या कर रहा नहीं कुछ?
भयाक्रांत हैं दिशाएँ
किसे दर्प हो रहा है?
किन स्वार्थों से मानव
अब सर्प हो रहा है?
मानव की बस्तियों में
विषधर कहाँ से आये?
सोये हुए शिशु को
चुपके से काट खाए?
क्या सीखें हम विपद से
असमय मृत्यु मरना?
या शक्तिहीन होकर,
असहाय हो तड़पना?
बिन लड़े मरे तो,
धिक्कार हम सुनेंगे,
कायर नहीं कभी थे,
तो आज क्यों रहेंगे?
हिंसा के पुजारी
हिंसा से ही डरेंगे,
प्रतिघात वो करेंगे,
संहार हम करेंगे.
.”प्रति हिंसा हिंसा न भवति” .


3 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रस्तुति-
    प्रभावी-
    आभार आदरणीय-

    जवाब देंहटाएं
  2. परिणाम हीन पथ पथ पर-परिणाम हीन पथ पर ,
    क्यों बढ़ रहे कदम कुछ?
    ये विषाक्त मानव
    क्या कर रहा नहीं कुछ?
    भयाक्रांत हैं दिशाएँ
    किसे दर्प हो रहा है?
    किन स्वार्थों से मानव
    अब सर्प हो रहा है?
    मानव की बस्तियों में
    विषधर कहाँ से आये?
    सोये हुए शिशु को
    चुपके से काट खाए?

    परिणाम हीन पथ तो एक ही काफी है दूसरा हटादें।

    बेहद सशक्त संवाद और सवाल अपने वक्त की विडम्बनाओं से ,विषधरों से करती हुई बिम्बात्मक रचना ।

    जवाब देंहटाएं