बैठा था इंतज़ार में
पागलों कि तरह
चुप चाप
तुम्हारी राहों में;
सोचा था
एक झलक मिल जायेगी
पर
दूर -दूर तक
तुम नजर नहीं आई
न तुम्हारी परछांई.
मेरे लिए
तुमसे होकर,
गुजरने वाली हवा ही
काफी थी;
पर
हवा ने भी मुझसे बेरुखी कर ली,
अनजान से ख्यालों में
खुद को खोता गया,
पर लोगों ने तो
मुझे
एक और नाम दे दिया
”पागल”
क्या करूँ?
किस से कहूँ
कि
ये पागलपन
भी
खुदा कि नेअमत
है,
तुमसे ,
न रब से,
कोई शिकायत
नहीं;
जाने क्यों
टुकड़ों का प्यार
मुझे रास नहीं आता;
और
अधूरे कि आदत नहीं है.
तुम्हारी बेरुखी
भी
तुम्हारी अदा लगती है,
और मेरी जिंदगी
भी
मुझे सजा लगती है.
मेरे जज्बात
तो बस मेरे हैं,
वो मुझे रुलाएं
या तड़पायें,
फर्क पड़ता क्या है?
मेरा क्या?
मझे अब
दर्द भी अपना लगता है,
खुशियां तो
तुम्हारे साथ
कब कि जा चुकी हैं,
अब है तो बस तन्हाई,
हर पल – हर लम्हा.
मेरे गम
और मेरी तन्हाई
हाँ बस यही है
मेरी जिंदगी.
आज एक अर्से के बाद
सुकून मिला
जब किसी ने मुझसे कहा
कि
पत्थरों कि दुनिया में
रहते रहते
इंसान भी पत्थर
हो गए हैं
सुकून मिला
जब किसी ने मुझसे कहा
कि
पत्थरों कि दुनिया में
रहते रहते
इंसान भी पत्थर
हो गए हैं
पत्थर के इंसान...!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना .....
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावपूर्ण रचना.. बधाई अभिषेक जी ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शनिवार (30-11-2013) को "सहमा-सहमा हर इक चेहरा" : चर्चामंच : चर्चा अंक : 1447 में "मयंक का कोना" पर भी होगी!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर अभिवादन,
जवाब देंहटाएंअपने बहुमूल्य समय से कुछ पल मेरी कविता के लिए निकालने के लिए आप सब का ह्रदय से बहुत - बहुत आभार.....
इंसान ने
जवाब देंहटाएंअपने लिए तैयार किये कटघरे
पत्थर की दुनिया के ,
फिर खुशी खुशी वह
उनमें रहने लगा
पत्थर बन कर |
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