गृहस्थ में रहकर संत रूप का प्राकट्य
रमेश पाण्डेय
गृहस्थ में रहकर जगत गुरूतम की न केवल उपाधि हासिल कर लेना, बल्कि आम जनमानस और संत समाज में उसका आत्मसात करा पाना कितना असहज है, किन्तु इस असहज कार्य को सहजता से पूर्ण करके दिखाया जगतगुरू कृपालु जी महाराज ने। उत्तर प्रदेश की धर्म और अध्यात्म की नगरी प्रयाग के सन्निकट स्थित प्रतापगढ़ जिले के कुंडा तहसील के अन्तर्गत मनगढ नाम के एक छोटे से गांव में इस महामानव का जन्म एक सामान्य परिवार में वर्ष 1922 में हुआ था। प्रभु की ऐसी कृपा कि इस बालक ने बाल्यकाल के आरंभ से ही भगवान श्रीकृष्ण और उनकी प्राणबल्लभा राधारानी को अपना ईष्ट बना लिया। फिर क्या भगवत कृपा की अपरंपार बरसात इस बालक पर हुई। मां सरस्वती के साथ मां लक्ष्मी का भी इस बालक पर विशेष कृपा दिखी। 16 साल की उम्र में अपनी बुनियादी शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने वृंदावन को प्रस्थान किया और अगले ही साल वो गुरू के रूप में श्री महाराज जी के रूप में सम्बोधित हुए। 17 साल की उम्र में 6 महीनों तक लगातार उन्होंने महामंत्र का जाप करना शुरू कर दिया। 1955 में कृपालु जी ने एक बहुत बृहत धार्मिक सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें भारत वर्ष के बाहुत सारे धार्मिक लोगों ने भाग लिया। काशी विद्वत परिषद के महामहोपाध्याय श्री गिरिधर शर्मा भी इस सम्मेलन में प्रस्तुत थे। कृपालु जी की आध्यात्मिक ज्ञान से वो बड़ेे प्रभावित हुए। उन्होंने कृपालु जी को 1957 में काशी विद्वत परिषद में प्रवचन देने के लिए आमंत्रित किया। यहाँ पर इन्होंने 7 दिनों तक भाषण दिया। इसके बाद वो पांचवें जगद् गुरू के रूप में चर्चित हुए। 14 जनवरी 1957 को मात्र 34 साल की उम्र में ही उन्हें काशी विद्वत परिषद द्वारा जगद्गुरू की उपाधि प्रदान की गई। सच कहूं तो कृपालु जी महराज ने अपने जीवन में गृहस्थ रहकर संत रूप का प्राकट्य किया। उन्होंने जनमानस को प्रेरणा दी कि गृहस्थ जीवन में भी ईश्वर की साधना बिन बाधा के की जा सकती है। साधना का क्रम ऐसा कि वह घंटों राधारानी की भक्ति में लीन हो जाते तो सुध-बुध खो देते थे। उन्होंने बरसाने के मनगढ़ में 3 नवम्बर 2003 को 75 बेड के अस्पताल की शुरुआत की। यहां अब न जाने कितने दीन-दुखी इलाज को आते हैं। रंगीली महल परिसर में भी 35 बेड का कृपालु चिकित्सालय 14 जनवरी 2007 को शुरू किया गया। यहां पर रोजाना 500 मरीज मुफ्त चिकित्सा लाभ ले रहे हैं। पिछले आठ वर्षो से 20 नेत्र शिविर, 17 रक्तदान शिविर, 39 प्राक्तिक चिकित्सा एवं योग शिविर लगाए गए हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी अहम योगदान दिया है। मनगढ़ में कृपालु बालिका प्राइमरी स्कूल, कुपालु बालिका इंटर कॉलेज, कृपालु महिला महाविद्यालय, व्यावसायिक शिक्षा को महाविद्यालय निर्माणाधीन है। देश में प्राकृतिक आपदाओं में भी कृपालु जी का विशेष योगदान रहता था। सेवा का यह सिलसिला यहीं नहीं रुका। महिलाओं को स्वालंबी बनाने के लिए महिला ग्रामोद्योग की स्थापना की। ग्रामीण निर्धन कन्याओं के विवाह कराए। विकलांग सेवा की। किसी को नहीं दी गुरुदीक्षा। संत और धर्मगुरुओं में से बहुत से नए संप्रदाय शुरू कर देते हैं। कृपालु महाराज इसके समर्थक नहीं थे। इसलिए कोई नया संप्रदाय स्थापित नहीं किया। यहां तक कि आज तक कोई शिष्य नहीं बनाया, किसी को गुरुमंत्र नहीं दिया। सिर्फ राधा की भक्ति उनके लिए सवरेपरि थी। कृपालु महाराज को भव्य मंदिरों से प्रेम था। इसीलिए उन्होंने इनकी भव्यता पर खूब जोर दिया। वृंदावन का प्रेम मंदिर इसका उदाहरण है। भव्यता के मामले में पूरे देश में कोई दूसरा ऐसा मंदिर नहीं है। यहां प्राचीन आर्कीटेक्ट के साथ आधुनिक भवन शैली का उपयोग तो किया ही है। फाउंटेन लेजर शो भी हैं। मंदिर में इटली के पत्थर का इस्तेमाल किया गया है। इसके अलावा भक्ति मंदिर श्रीभक्ति धाम मनगढ़ में बनवाया है। कीर्ति मैया मंदिर के साथ रंगीली महल बरसाना (निर्माणाधीन) है। 15 नवंबर 2013 को उन्होंने अपनी दैहिकलीला को पूर्ण किया। 18 नवंबर को उनका अंतिम संस्कार पैतृक गांव मनगढ़ में स्थित भक्तिधाम परिसर में किया गया। इस अवसर पर उनके अन्तिम दर्शन के लिए हजारों की तादात में देश और विदेश के भक्तों का सैलाब उमड़ पड़ा। अश्रुधारा के बीच भक्तों ने कृपालु महाराज को अन्तिम विदाई दी। कृपालु महाराज ने सांसारिक जीवन में रहकर सेवा और भक्ति का जो मानदंड स्थापित किया, निश्चित रूप से उसकी कीर्ति युगों तक विद्यमान रहेगी।
कृपालुजी महाराज को न सिर्फ वेदांत दर्शन के तमाम मंत्र कंठस्थ थे ,कौन सा श्लोक किस -किस ग्रन्थ में कहाँ है यह नब्बे के पार की अवस्था में भी आत्मसात था.हंसी हंसी में जीवन के ,वेदांत के गूढ़ अर्थों को समझा देते थे। उनके एक शिष्य (स्वामी मुकुंदानंद जी )के संपर्क में मैं मिशिगन राज्य के कैंटन हिन्दू टेम्पिल में आया। बारहा इस विद्वान योगी को सुनकर जो आई आई टी दिल्ली ,और आई आई एम ,कोलकाता से बीटेक और एमबीऐ रहें हैं सुनते सुनते अंग्रेजी भाषा से प्यार हो गया। इन्हीं की मार्फतब जगत गुरु की वाणी सुनी सुनते रहे १४ नवंबर २०१३ तक। फ्रेंफर्ट से मुम्बई पहुँचने पर हवाई अड्डे पर ही मुझे उनके गोलोक जाने का समाचार मिला। अश्रु बहे और थमे ,याद आये उनके अर्थपूर्ण वाक्य अरे किसका बाप ,किसकी माँ ,अनंत कोटि बार तुम उनके बाप ,माँ ,.... अनंत कोटि सम्बन्धों में रहे हो।
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हटाएंअच्छा लगा, धन्यवाद
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार को (19-11-2013) मंगलवारीय चर्चामंच---१४३४ ओमप्रकाश वाल्मीकि को विनम्र श्रद्धांजलि में "मयंक का कोना" पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हटाएंआशीर्वाद देने के लिए धन्यवाद
भगवत पुराण में लिखा है , कलयुग में कथावाचकों को संत समझा जाएगा और असली संतो को कोई पहचानेगा भी नहीं !
जवाब देंहटाएंप्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद
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