बर्फ पिघली और दरिया की रवानी हो गयी।
तुम मिले तो जिन्दगानी, जिन्दगानी हो गयी।।
ढीठ झोके ने हवा से छू लिया उसका बदन।
शर्म से इक शोख नदिया पानी-पानी हो गयी।।
खाक करने पर तुली थी धूप फसलों को मगर।
वे तो कहिये बादलों की मेहरबानी हो गयी।।
दिल की बस्ती में तो जख्मों का बसेरा हो गया।
आंख मेरी आंसुओं की राजधानी हो गयी।।
कल सियासत कह रही थी दल न बदलेंगे कभी।
ये तवायफ कब से आखिर स्वाभिमानी हो गयी।।
तुम मिले तो जिन्दगानी, जिन्दगानी हो गयी।।
ढीठ झोके ने हवा से छू लिया उसका बदन।
शर्म से इक शोख नदिया पानी-पानी हो गयी।।
खाक करने पर तुली थी धूप फसलों को मगर।
वे तो कहिये बादलों की मेहरबानी हो गयी।।
दिल की बस्ती में तो जख्मों का बसेरा हो गया।
आंख मेरी आंसुओं की राजधानी हो गयी।।
कल सियासत कह रही थी दल न बदलेंगे कभी।
ये तवायफ कब से आखिर स्वाभिमानी हो गयी।।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (01-112-2013) को "निर्विकार होना ही पड़ता है" (चर्चा मंचःअंक 1448)
पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बर्फ पिघली और दरिया की रवानी हो गयी।
जवाब देंहटाएंतुम मिले तो जिन्दगानी, जिन्दगानी हो गयी।।
ढीठ झोके ने हवा से छू लिया उसका बदन।
शर्म से इक शोख नदिया पानी-पानी हो गयी।।
खाक करने पर तुली थी धूप फसलों को मगर।
वे तो कहिये बादलों की मेहरबानी हो गयी।।
दिल की बस्ती में तो जख्मों का बसेरा हो गया।
आंख मेरी आंसुओं की राजधानी हो गयी।।
कल सियासत कह रही थी दल न बदलेंगे कभी।
ये तवायफ कब से आखिर स्वाभिमानी हो गयी।।
क्यों तवायफ कहके इनको रात दिन करते बदनाम ,
राजनीतिक धंधे बाज़ों से बहुत ऊपर है इनका नाम ,
बहुत सुन्दर प्रस्तुति भाई रमेश जी पांडे।