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शनिवार, 30 नवंबर 2013

बादलों की मेहरबानी

बर्फ पिघली और दरिया की रवानी हो गयी।
तुम मिले तो जिन्दगानी, जिन्दगानी हो गयी।।
ढीठ झोके ने हवा से छू लिया उसका बदन।
शर्म से इक शोख नदिया पानी-पानी हो गयी।।
खाक करने पर तुली थी धूप फसलों को मगर।
वे तो कहिये बादलों की मेहरबानी हो गयी।।
दिल की बस्ती में तो जख्मों का बसेरा हो गया।
आंख मेरी आंसुओं की राजधानी हो गयी।।
कल सियासत कह रही थी दल न बदलेंगे कभी।
ये तवायफ कब से आखिर स्वाभिमानी हो गयी।।

1 टिप्पणी:

  1. बर्फ पिघली और दरिया की रवानी हो गयी।
    तुम मिले तो जिन्दगानी, जिन्दगानी हो गयी।।
    ढीठ झोके ने हवा से छू लिया उसका बदन।
    शर्म से इक शोख नदिया पानी-पानी हो गयी।।
    खाक करने पर तुली थी धूप फसलों को मगर।
    वे तो कहिये बादलों की मेहरबानी हो गयी।।
    दिल की बस्ती में तो जख्मों का बसेरा हो गया।
    आंख मेरी आंसुओं की राजधानी हो गयी।।
    कल सियासत कह रही थी दल न बदलेंगे कभी।
    ये तवायफ कब से आखिर स्वाभिमानी हो गयी।।

    क्यों तवायफ कहके इनको रात दिन करते बदनाम ,

    राजनीतिक धंधे बाज़ों से बहुत ऊपर है इनका नाम ,

    बहुत सुन्दर प्रस्तुति भाई रमेश जी पांडे।

    जवाब देंहटाएं