21वीं सदी के इस दौर में शिमला के समीप एक ऐसा गांव है, जहां पर अभी भी पुरानी परंपरा पूरे रस्मों रिवाज के साथ निभाई जाती है। शिमला शहर से 35 किलोमीटर दूर धामी में पत्थरों के खेल का मेला होता है। दिवाली से एक दिन बाद इस मेले का आयोजन किया जाता है। दो गांव के लोगों के बीच तब तक पत्थर बरसाए जाते हैं, जब तक किसी के शरीर से खून नहीं निकल जाता। शरीर से खून निकलने के बाद राज परिवार के लोग इस खूनी खेल के खत्म होने की घोषणा करते हैं। भद्रकाली के मंदिर में खून का टीका करते हैं। एक-दूसरे पर पत्थर बरसा कर जान लेने पर उतारू लोग दो ही पल में गले मिलकर नाटी डालते हैं। खून का टीका होने के बाद दोनों गुटों के लोग आपस में गले मिलते हैं। लोगों के लिए भले ही यह मेला मनोरंजन का केंद्र रहता हो, लेकिन क्षेत्र के लोगों की आस्था मेले के इस खेल से जुड़ी हुई है। दिवाली से ठीक एक दिन बाद धामी स्थित खेल का चौरा नामक स्थान पर इस मेले का आयोजन किया जाता है। धामी क्षेत्र के दो गांव जमोगी व कटेड़ू की टोलियां मैदान के दोनों तरफ गुटों में बंट जाती हैं। मैदान के बीच में सती का शारड़ा है इसके दोनों तरफ गांव के यह लोग खड़े रहते हैं। दोनों टोलियों की तरफ से तब तक पत्थर बरसाए जाते हैं, जब तक किसी के शरीर से खून निकलना बंद नहीं हो जाता। पत्थर से घायल हुए व्यक्ति के खून से भद्रकाली के मंदिर में टीका किया जाता है। आधुनिकता के इस दौर में लोगों में यह परंपरा खत्म होने के बजाय बढ़ रही है। दिवालीसे ठीक 11 दिन बाद कालीहट्टी नामक स्थान पर भी इसी तरह के मेले का आयोजन किया जाता है। यह जगह शिमला से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। वहां पर भी कालीमाता का मंदिर है। दो गांव के लोग वहां पर भी आस्था के नाम पर एक-दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं।
साभार दिव्य हिमाचल
आभार आपका । प्रोत्साहन मिला
जवाब देंहटाएंअनोखे रीति रिवाज़ ... यही है अपना हिन्दुस्तान ...
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