खिलता देख कर बाग
को बागवाँ को हर सांस में
रूहानी जिस्मानी खुशियों
से सरोबार करजाती हैं
हाथों से खिसकता हुआ बाग देख कर बागवाँ को
रूहानी जिस्मानी दर्दों
गमों से वो रंजोबार करती हैं
यह लगाव भी क्या नामुराद
दूरियाँ कर देती बर्बाद
लगाव खुदा से जिस्म से
मानशान ,जान-पहचान से
हंसी आती भागते जिसके पीछे पूछते
न हमें मान से
कहे पथिक अनजाना जिन्दगी
सिफर पर गुजरती हैं
हर अगला क्षण अंधा मोड छोडते
न फिर भी आस हैं
पथिक अनजाना
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