शासन का मशविरा --- पथिक अनजाना
जाने वक्त कैसा
आगया या भूले से मैं यहाँ आ गया
शासन मशविरा देता
अब प्रकाशकों व उदघोषकों को
स्थान नहीं दो
न्यायपालिका व शासन विरूढ रोष को
आखें
खुली, कान खुले जुबान बन्द व लिखना मना हैं
तमाशबीनों से भरी दुनिया में खुदा भी हुआ अनबना
हैं
चन्द सिरमौर्य जय-योग्य , शेष सुलझे लोग रोग हैं
संघर्षशील नई पौध
की रचनायें होती गैरों के भोग हैं
भावार्थ न समझे जनहित
न समझें कहलाते योग्य हैं
पथिक अनजाना
http://pathic64.blogspot.com
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (26-12-13) को चर्चा - 1473 ( वाह रे हिन्दुस्तानियों ) में "मयंक का कोना" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'