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बुधवार, 25 दिसंबर 2013

ढांचा समाज का


समाज का स्वरूप चंद लोग ही बदलते  हैं
जैसे सूरज अकेले ही जग में उजाला भरते हैं
एक ही शक्ति समाज को चलाती है
नेता के रूप में हमारे सामने आती है
इनमे से कुछ नेता बुराई का नेतृत्व करते हैं
देश,समाज,संस्कृति को खोखला करते हैं
एक तरफ तो सफ़ेद पोश बनकर सत्संग करते हैं
दूसरी तरफ ये जमाखोरों से विवाह करते हैं
जमाखोरी दुल्हन बन देश में आती है
भष्टाचार,रिश्वत को दहेज़ में लाती है
महंगाई को जन्म देकर दुःख  की जननी बन जाती है
देश में भुखमरी,गरीबी बसेरा कर जाती है
इससे निपटने में जनता एडी से चोटी तक का बल लगाती है
फिर भी दुखो के सागर से पार नहीं पाती है
पेट के लिए जनता दिन रात जुटी रह जाती है
रिश्ते,संस्कार,प्यार ताक पार रखकर धन के पीछे दौड़ती जाती है
हर तरफ ये शोर सुनाई दे रहा है
समाज इंसानों का नहीं मशीनों का बन रहा है
त्याग,प्रेम, अपनापन सब समाप्ति की ओर अग्रसर हो रहा है
लालच कालसर्प की तरह आदर्श समाज को निगल रहा  है
इसको बचाने के लिए अच्छे इंसान को नेता बनाओ
अपना धन सरकार के हाथ में देकर नुक्सान न उठाओ
अपने नगर की भलाई के लिए स्वंय सहायता समूह बनाओ
धन देकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति मत पाओ

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर और प्रेरक अभिव्यक्ति।
    --
    आपका ब्लॉग में आपका स्वागत है।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (26-12-13) को चर्चा - 1473 ( वाह रे हिन्दुस्तानियों ) में "मयंक का कोना" पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. बहुत अच्छा किया ,समाज की कुंडली बना डाली -उपमा लाजवाब |
    नई पोस्ट मेरे सपनो के रामराज्य (भाग तीन -अन्तिम भाग)
    नई पोस्ट ईशु का जन्म !

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