काँपते लबों से विदाई --435
चाहते
हैँ सनम जब हम जहान से जुदा होंगें
जोड
कर हाथ करें हम खुदा से इक दरखास
होगें
हाथ तुम्हारे वक्ते मौत हाथ हमारों में
काँपते
लबों से विदाई हो लेकर मिलन की आस
बंधनों,गैरख्यालों
ने कियाआशाऔं का सत्यानाश
मुस्कायें
उनके चेहरे कहलाये हैं हम शाबाश
खरीदे
गम व आहें होते फिर क्यों हम निराश
पथिक
अनजाना
http://pathic64.blogspot.com
बहुत सुन्दर अर्थ गर्भित रचना।
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