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शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

ख़ामोशी

रात के अँधेरे मेँ,
ख़ामोशी
कुछ इस कदर
पाँव
पसारती है
कि,
समझना
मुश्किल हो जाता है
कि
ख़ामोश हम हैँ
या रातेँ ?

अनजान राहोँ पर,
ड़गमगाते
कदमो के सहारे
मँजिल तलाशना
मक्कारी
लगता है
फिर भी
हर रोज निकलता हूँ
तलाश मेँ,
कभी गिरता हूँ
कभी
गिरा दिया जाता हूँ ,
मीलोँ भटकता हूँ
पर
अफसोस
मँजिल फिर भी दूर लगती है.

रोशनी मिलती नहीँ,
अधेरे मेँ
कुछ सूझता नहीँ
पर
ज़िद है फिजा मेँ
घुली हुई विरानियोँ
के सहारे,
मँजिल पाने की
जानता हूँ
खामोशियाँ कुछ नहीँ कहतीँ
पर
इक उम्मीद है
कि
इनके बिना कहे,
सुन लुँगा
मँजिल की पुकार.
                                      (चित्र गूगल से साभार )

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शनिवार (28-12-13) को "जिन पे असर नहीं होता" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1475 में "मयंक का कोना" पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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