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सोमवार, 15 जून 2015

दरीचा


तेरा दरीचा
रोज खुलता था
अक्सर जब तुम
होती थी खाली
तुम आ जाती थी
झरोखे पे सुलझाने
अनसूलझे रेशमी बाल
और -
सॅवारने चाॅद सा मुखड़ा।

अब तुम नहीं हो तो
कितना खाली सा है
दरीचा और
उतना ही वीरान मेरा मन
हवा भी खूशबू नहीं देते
क्योंकि -
तुम्हारी खूशबू नहीं है
हवाओं के साथ।

मुझे पता है कि -
नहीं आओगी लौटकर,
अगर आई भी
तो संभव है
मेरा वही जगह होगा तुम्हारे जीवन में
जितना होता है
भुलने योग्य फजूल वक्त का।

परन्तु
तब भी प्रतिक्षा है
अंधे प्रेम की अंधी उम्मीद के कारण
कि शायद
तुम पुनः
उस दरीचे में
आइना लेकर खड़ी मिलोगी
जब सजना सॅवरना
एक बहाना होगा मात्र
मेरी झलक की प्रतिक्षा के लिए।

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