जब निवाले तक के लिए करना था मोहताज
तो हड्डियों के ढांचे में के आवरण में
सागर सा गहरा नितान्त अतृप्त
जो मजबूरियों से परे हो
अपनी आवश्यकताओं के लिए हलचल मचा देने वाला
निर्मम पेट क्यों दिया
यही तो हे जो दया दृष्टि रख
मनुष्य को खासकर गरीबों को
विवशता की आग में धकेल देता है
क्या नहीं होता उस निर्धन के पास
दो भुजा, दो पैर, दो नेत्र सब होता है
उनके पास भी दिमाग व दिल से उपजा विवेक होता है
तथा आजू बाजू के वातावरण में हो रहे
उथल पुथल का अनुभव भी
पर वे इसलिए ही न हीन समझे जाते हैं
कि वे दीन होते हैं
तथा अपने अथक श्रम से अल्प मूल्य पर
खून पसीना बहाते हैं
हमने नग्न आंखों से देखा है नाबालि बालकों को
पढ़ने व खेलने कूदने के क्षणों को
मजबूरन कारखानों में व्यतीत करते
होटलोें में बर्तन धोते और पोंछा लगाते भी
यहां तक कि रेलगाडि़यों में या स्टेशनों पर
मूंगफली भुजा बेचते या लाचार भीख मांगते भी
यूं तो इससे मनु का कोई भी तबका अछूता न रहा है
जब जो बालिकाएं हमारे समाज में हया इज्जत
और परदे के पार समझी जाती है
आज हम उन्हे शहरों मे सर पर
विवश टोकरी टोकरी लादे निरख सकते हैं
यह है हमारे विकसित हो रहे भारतवर्ष की
नारियों की परिस्थितियां
संसद में इनके सुधार के लिए
नियम तो सैंकड़ों बनाए जाते हैं
व अभिीयान भी बहुत चलाए जाते हैं
नेता लोग गला फाड़कर चैराहे पर चिल्लाते हैं
कि नारी विकास अति संवेदनशील मसला है
हम पूछते हैं …… मगर क्या अीाी तक सुलझा पाया है
बुजुर्गों की तो हालत ही मत पूछिए
यूं कहें उनकी दीन दशा देखकर पत्थर के भी आंसू
सूखने लगे तो अतिश्योक्ति न होगी
पके से उम्र में जब प्रत्येक अंग जवाब देने लगे
और ऐसे में पेट की भरपाई के लिए
दुर्भाग्य से जूझ रहे गरीब परिवार के साथ साथ
स्वयं भी मजूरी करना पड़ जाए
तो मन व बदन पर क्या बीतेगी
शायद भगवान भी प्रकट न कर पाएं
परन्तु करे भी तो क्या
जबरन यह दुखों का असहाय सा बेड़ा
सर लेना ही पड़ता है
और यह सब किसलिए
पेट और पेट के लिए ही तो
मेरा अन्तःकरण भी तड़प उठता है
हे ईश्वर जब निवाले तक के लिए करना था मोहताज
तो फिर ये बेरहम निर्मम पेट क्यों दिया
यह पेट जो न होता अगर तौ
इस तरह जानवरों की मानिंद
जीवन तो न जीना पड़ता ।
तो हड्डियों के ढांचे में के आवरण में
सागर सा गहरा नितान्त अतृप्त
जो मजबूरियों से परे हो
अपनी आवश्यकताओं के लिए हलचल मचा देने वाला
निर्मम पेट क्यों दिया
यही तो हे जो दया दृष्टि रख
मनुष्य को खासकर गरीबों को
विवशता की आग में धकेल देता है
क्या नहीं होता उस निर्धन के पास
दो भुजा, दो पैर, दो नेत्र सब होता है
उनके पास भी दिमाग व दिल से उपजा विवेक होता है
तथा आजू बाजू के वातावरण में हो रहे
उथल पुथल का अनुभव भी
पर वे इसलिए ही न हीन समझे जाते हैं
कि वे दीन होते हैं
तथा अपने अथक श्रम से अल्प मूल्य पर
खून पसीना बहाते हैं
हमने नग्न आंखों से देखा है नाबालि बालकों को
पढ़ने व खेलने कूदने के क्षणों को
मजबूरन कारखानों में व्यतीत करते
होटलोें में बर्तन धोते और पोंछा लगाते भी
यहां तक कि रेलगाडि़यों में या स्टेशनों पर
मूंगफली भुजा बेचते या लाचार भीख मांगते भी
यूं तो इससे मनु का कोई भी तबका अछूता न रहा है
जब जो बालिकाएं हमारे समाज में हया इज्जत
और परदे के पार समझी जाती है
आज हम उन्हे शहरों मे सर पर
विवश टोकरी टोकरी लादे निरख सकते हैं
यह है हमारे विकसित हो रहे भारतवर्ष की
नारियों की परिस्थितियां
संसद में इनके सुधार के लिए
नियम तो सैंकड़ों बनाए जाते हैं
व अभिीयान भी बहुत चलाए जाते हैं
नेता लोग गला फाड़कर चैराहे पर चिल्लाते हैं
कि नारी विकास अति संवेदनशील मसला है
हम पूछते हैं …… मगर क्या अीाी तक सुलझा पाया है
बुजुर्गों की तो हालत ही मत पूछिए
यूं कहें उनकी दीन दशा देखकर पत्थर के भी आंसू
सूखने लगे तो अतिश्योक्ति न होगी
पके से उम्र में जब प्रत्येक अंग जवाब देने लगे
और ऐसे में पेट की भरपाई के लिए
दुर्भाग्य से जूझ रहे गरीब परिवार के साथ साथ
स्वयं भी मजूरी करना पड़ जाए
तो मन व बदन पर क्या बीतेगी
शायद भगवान भी प्रकट न कर पाएं
परन्तु करे भी तो क्या
जबरन यह दुखों का असहाय सा बेड़ा
सर लेना ही पड़ता है
और यह सब किसलिए
पेट और पेट के लिए ही तो
मेरा अन्तःकरण भी तड़प उठता है
हे ईश्वर जब निवाले तक के लिए करना था मोहताज
तो फिर ये बेरहम निर्मम पेट क्यों दिया
यह पेट जो न होता अगर तौ
इस तरह जानवरों की मानिंद
जीवन तो न जीना पड़ता ।
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