मेरी एक छोटी सी लाईब्रेरी, जिसमें मुश्किल से पैंतिस-चालिस पुस्तकें ही होगीं और सभी
एक से बढ़कर एक। कुछ तो हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर और कालजई पुस्तकों में
गिनी जाती हैं, एक पुस्तक तो
नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित है, और
एक साहित्य अकादमी। कई पुस्तकें अमर कथाकार प्रेमचंद साहब की भी हैं।
अपने छोटे से कमरे मे प्रवेश करते हुये जैसे ही मेरी नजर
उन पुस्तकों की तरफ जाती हैं मन प्रफुल्लित हो उठता हैं और ललचिया सा जाता हैं।
मैं कल्पना करने लगता हूँ, सोचता
हूँ। काश इनमें से दस प्रतिशत रचनाएँ भी मेरी कलम से निकली होती तो क्या बात
होती।
साये में धूप, गबन, प्रतिज्ञा, राग
दरबारी, गीतांजलि और
कुछ कहानियाँ जैसे पोस्टमास्टर, पड़ोसिन, ईदगाह, बूढी
काकी, नमक का दरोगा
और कुछ नज्में भी जैसे ताजमहल, औरत, आवारा, मकाँ
की उपरी मंजिल आदि। बस इतनी ही रचनाएँ ज्यादा लालच नहीं, बमुश्किल से बारह-तेरह सौ पन्नों का मेरा सम्पूर्ण
साहित्य, दो मोटी-मोटी
पुस्तकें, बस।
फिर कोई न टिक पाता मेरे सामने न दुष्यंत, न कैफी और न ही शुक्ल। मैं अक्सर सोचता हूँ मेरे दिमाग
में एक प्रश्न बार-बार कौधता रहता हैं कि ऐसी क्लासिकल रचनाएँ एक ही रचनाकार
क्यों नहीं कर सकता। क्या जरूरी हैं, दुष्यंत, प्रेमचंद, टैगोर, शुक्ल, साहिर, कैफी, मजाज, गुलज़ार सब एकसाथ जुटे तभी ऐसा साहित्य आ सकता हैं।
अबतक भारत को एक ही साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला हैं, गीतांजलि पर रवींद्रनाथ टैगोर को। क्या उपरोक्त में से एक
भी कृति या कृतिकार उसके काबिल नहीं हैं? है, मगर उस विश्वस्तरीय सम्मान से दूर हैं, क्यों?
मैनें लिखना अभी शुरू ही किया हैं सब कुछ एक में समाहित
करने की कोशिश कर रहा हूँ। हिन्दी साहित्य की तमाम विधाओं पर लिख रहा हूँ। हाशिम
साहब कहते हैं 'अभी तुमसे गज़ल
नहीं हो पा रही है' मगर
कविता और हाइकु पर बहुत से कवियों ने साबसी दी है। और इधर कुछ अच्छी कविताएँ भी
मेरी कलम से निकली हैं जैसे - बदलता वक्त, मेरी
आवाज, सदीं का ठहराव, मन की पीड़ा, तुममें
भी ये सारी शक्तियाँ हैं, बरसात
मेरी मेहबूबा, आदि अनेकों
कविताएँ प्रसंसित हुई हैं मगर वो बात अभी तक नहीं बन पा रही, जो इन महानतम रचनाकारों की रचनाओ में हैं।
मैं अगर कोई कविता, कहानी
या फिर किसी और विधा पर लिखना शुरू करता हूँ तो तुरन्त ही उसे पूरा करने के लिए
पूरा ताकत झोंक देता हूँ क्योंकि अगर वो अधूरी छूट जाती हैं तो पहले तो बर्फ की
भाँति मेरी मुठ्ठी में रहती हैं। मगर समय के साथ आहिस्ता-आहिस्ता पिघलकर मेरे
हाथों से निकल जाती हैं और फिर मैं पछतावे के सिवाय, कुछ भी नहीं कर सकता। ऐसी कई कहानियाँ, एक-दो
लघु नाटक और एक मेरे दिल के बेहद करीब कविता 'पांचाली के प्रश्न' आदि
आजतक अधूरी ही है जिन्हें मैनें अपने शुरूआती दिनों में लिखने का प्रयत्न किया
था 2012 में।
मगर अबतक अधूरी हैं और मेरे हाथ से लगभग निकल चुकी हैं।
मेरी दिली इच्छा हैं कि मेरे मरने से पूर्व कुछ ऐसा
साहित्य मेरी भी कलम से निकले, जो
मेरे बाद आने वाली पीढियों के साहित्यकारों को ललचियायें और हिन्दी साहित्य में
मेरी सशक्त उपस्थिति दर्ज करायें।
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