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बुधवार, 24 जून 2015

मेरे रहगुजर में मुद्दतों से कब दीया जली


मेरे रहगुजर में मुद्दतों से कब दीया जली
धुँआ उठता रहा धड़कनों में चिमनियाँ जली
अकेले घुटकर जीने का एहसास मुझको है
तनहा जब जब रोया तो सिसकियाँ जली
हर दिन किस कदर नींद आती है रात को
उनसे पूछिए, कि जिनकी आशियाँ जली
इस जहाँ में कितने अजीम आए और चल दिए
एक दिन वो भी जले और उनकी अस्थियाँ जली
उस जंग में तनहा मुफलिस ही नहीं लुटे गए
उस आग में कितने सिकंदरों की हस्तियां जली
उस से बिछड़कर जब और से सगाई होने लगी
बदन की हल्दियाँ जली हाथों की मेंहदियाँ जली
ऐसा था वो चिराग जिसे बुझाने की चाह में
हर मर्तबा शिकस्त खाकर वो आँधियाँ जली

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