जैसा करे संग ,वैसा चढ़े रंग
जैसा पीवे पानी ,वैसी होवे वाणी।
जैसा खावे अन्न ,वैसा होवे मन।
भारतीय संस्कृति में रसोई बनाने वाले का बड़ा महत्व रहा है। शुद्धता ,शुचिता यहां परम तत्व है। पहले बड़े घरों में रसोई बनाने वाले को महाराज कहा जाता था। वह रसोई का महाराजा होता था। उसकी अनुमति के बिना कोई रसोई में आ नहीं सकता था। उसका हुक्म चलता था। सब लोग उसका आदर करते थे।
खाना पकाने वाले के वर्ण का विशेष ध्यान रखा जाता था (वर्ण व्यवस्था गुण प्रधान थी जन्म प्रधान नहीं )। अब वर्ण का ध्यान नहीं रखा जाता। किसी से भी हम रसोई बनवा लेते हैं।हाँ बनवाने का अर्थ यहां पाक कला से ही है। पान (बीड़ा )और रसोई बड़े चाव से विधि पूर्वक बनाये जाते थे ।
अब महाराज का स्थान कामवाली बाई (मेड )ले चुकी है। वह किसी भी वर्ण क्या किसी भी मुल्क की हो सकती है। खुदेजा बीवी खाना पकाती थी हमारे बेटे के यहां मुंबई में। हम ठहरे घुमन्तु आज यहां कल वहां। वेसटिजियल ऑर्गेन की स्थिति में आ चुके हैं। अब घर के बुजुर्ग , फिर भी अपने बुजुर्ग होने की शर्त बड़े जत्नपूर्वक खुद ही पूरी करते रहतें हैंकागज़ पर ही सही अपने आपको राष्ट्रपति से कम नहीं मानते ।स्थिति भी राष्ट्रपति जैसी ही रहती है। दिखावे की तीहल।
मान न मान मैं तेरा मेहमान वाली उक्ति यहां सहज ही चरितार्थ हो जाती है।
अब रसोइयानी (मेड) अशुद्ध अवस्था में भी रसोई बनाती है। ज्यादातर लोग अब इसका परहेज़ भी नहीं करते यूं कहो जानते भी नहीं हैं कहीं कहीं तो। जो जानते वह कहते हैं यह तो शरीर का स्वाभाविक मासिक धर्म है।
कहा जाता था इस अवस्था में माताएं जिन्हें पूर्व में अन्नपूर्णा कहा जाता था इस स्थिति में यदि नियम विरुद्ध जाकर तुलसी और पीपल का स्पर्श कर लें तो दोनों ही सूख जाते थे।
पूर्व में मैं ब्रह्माकुमारीज़ आश्रम में नियमित जाता था। अब सनातन धर्म की शाश्वत सार्वत्रिक सार्वकालिक धारा में लौट आया हूँ। वहां मुझे एक बात बड़ी भली लगती थी। इस बात का बड़ा ध्यान रखा जाता है खाना पकाया किसने है कैसे पकाया है। क्या शिव बाबा की याद में पकाया है।या रो किलसकर खाना पकाने की रस्म पूरी की है।
या शिवबाबा की भंडारी बनाई है ?हर जगह पर और हर जगह की यहां के छात्र चाय भी नहीं पीते ,खाने की कौन कहे।अलबत्ता यहाँ निर्गुण ब्रह्म पर ही ध्यान केंद्रित किया जाता है। उसके ज्योतिर्लिंगम् स्वरूप का ही गायन है।
सगुण निर्गुण के चक्कर में मायाधीन लोग ही पड़ते हैं। परमात्मा विरोधी गुणों का आश्रय है। वह सगुण साकार सविशेष भी है इन अर्थों में की उसका एक शरीर भी है लेकिन यह शरीर पांच (प्रधान) तत्वों का बना नहीं है। दिव्य है. परमात्मा में और उसके शरीर में अभेद है।
निर्गुण निराकार निर्विशेष वह इसलिए है कि प्रकृति के गुणों से परे है। त्रिगुणात्मक सृष्टि का नियंता है माया का शासक मायापति है ।माया उसका स्पर्श भी नहीं कर सकती जबकि जीव मायाधीन है भले उसी परमात्मा का अणुवत अंश है।लेकिन जीव का शरीर पंचभूता है।
जीव की आत्मा ही परमात्मा का दिव्य शरीर है।
खाना खाते समय क्या आप उस प्रभु का स्मरण करते हैं। भोग लगाते हैं ?कहते हैं प्रभु तेरी भंडारी से ही भोग प्राप्त हुआ।
महाराज कौआ की गौ की गृहपाल (स्वान , कुत्ता )की भी रोटी निकालता था। पहली रोटी गैया की ही होती थी।
कहते हैं जैसा अन्न वैसा मन तैयार किए गए खाने में बनाने वाले की भासना आ जाती है भाव आ जाता है। वह भाव स्नेह का भी हो सकता है और बेगार कूटने का भी।
जैसा पीवे पानी ,वैसी होवे वाणी।
जैसा खावे अन्न ,वैसा होवे मन।
भारतीय संस्कृति में रसोई बनाने वाले का बड़ा महत्व रहा है। शुद्धता ,शुचिता यहां परम तत्व है। पहले बड़े घरों में रसोई बनाने वाले को महाराज कहा जाता था। वह रसोई का महाराजा होता था। उसकी अनुमति के बिना कोई रसोई में आ नहीं सकता था। उसका हुक्म चलता था। सब लोग उसका आदर करते थे।
खाना पकाने वाले के वर्ण का विशेष ध्यान रखा जाता था (वर्ण व्यवस्था गुण प्रधान थी जन्म प्रधान नहीं )। अब वर्ण का ध्यान नहीं रखा जाता। किसी से भी हम रसोई बनवा लेते हैं।हाँ बनवाने का अर्थ यहां पाक कला से ही है। पान (बीड़ा )और रसोई बड़े चाव से विधि पूर्वक बनाये जाते थे ।
अब महाराज का स्थान कामवाली बाई (मेड )ले चुकी है। वह किसी भी वर्ण क्या किसी भी मुल्क की हो सकती है। खुदेजा बीवी खाना पकाती थी हमारे बेटे के यहां मुंबई में। हम ठहरे घुमन्तु आज यहां कल वहां। वेसटिजियल ऑर्गेन की स्थिति में आ चुके हैं। अब घर के बुजुर्ग , फिर भी अपने बुजुर्ग होने की शर्त बड़े जत्नपूर्वक खुद ही पूरी करते रहतें हैंकागज़ पर ही सही अपने आपको राष्ट्रपति से कम नहीं मानते ।स्थिति भी राष्ट्रपति जैसी ही रहती है। दिखावे की तीहल।
मान न मान मैं तेरा मेहमान वाली उक्ति यहां सहज ही चरितार्थ हो जाती है।
अब रसोइयानी (मेड) अशुद्ध अवस्था में भी रसोई बनाती है। ज्यादातर लोग अब इसका परहेज़ भी नहीं करते यूं कहो जानते भी नहीं हैं कहीं कहीं तो। जो जानते वह कहते हैं यह तो शरीर का स्वाभाविक मासिक धर्म है।
कहा जाता था इस अवस्था में माताएं जिन्हें पूर्व में अन्नपूर्णा कहा जाता था इस स्थिति में यदि नियम विरुद्ध जाकर तुलसी और पीपल का स्पर्श कर लें तो दोनों ही सूख जाते थे।
पूर्व में मैं ब्रह्माकुमारीज़ आश्रम में नियमित जाता था। अब सनातन धर्म की शाश्वत सार्वत्रिक सार्वकालिक धारा में लौट आया हूँ। वहां मुझे एक बात बड़ी भली लगती थी। इस बात का बड़ा ध्यान रखा जाता है खाना पकाया किसने है कैसे पकाया है। क्या शिव बाबा की याद में पकाया है।या रो किलसकर खाना पकाने की रस्म पूरी की है।
या शिवबाबा की भंडारी बनाई है ?हर जगह पर और हर जगह की यहां के छात्र चाय भी नहीं पीते ,खाने की कौन कहे।अलबत्ता यहाँ निर्गुण ब्रह्म पर ही ध्यान केंद्रित किया जाता है। उसके ज्योतिर्लिंगम् स्वरूप का ही गायन है।
सगुण निर्गुण के चक्कर में मायाधीन लोग ही पड़ते हैं। परमात्मा विरोधी गुणों का आश्रय है। वह सगुण साकार सविशेष भी है इन अर्थों में की उसका एक शरीर भी है लेकिन यह शरीर पांच (प्रधान) तत्वों का बना नहीं है। दिव्य है. परमात्मा में और उसके शरीर में अभेद है।
निर्गुण निराकार निर्विशेष वह इसलिए है कि प्रकृति के गुणों से परे है। त्रिगुणात्मक सृष्टि का नियंता है माया का शासक मायापति है ।माया उसका स्पर्श भी नहीं कर सकती जबकि जीव मायाधीन है भले उसी परमात्मा का अणुवत अंश है।लेकिन जीव का शरीर पंचभूता है।
जीव की आत्मा ही परमात्मा का दिव्य शरीर है।
खाना खाते समय क्या आप उस प्रभु का स्मरण करते हैं। भोग लगाते हैं ?कहते हैं प्रभु तेरी भंडारी से ही भोग प्राप्त हुआ।
महाराज कौआ की गौ की गृहपाल (स्वान , कुत्ता )की भी रोटी निकालता था। पहली रोटी गैया की ही होती थी।
कहते हैं जैसा अन्न वैसा मन तैयार किए गए खाने में बनाने वाले की भासना आ जाती है भाव आ जाता है। वह भाव स्नेह का भी हो सकता है और बेगार कूटने का भी।
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