मित्रों!

आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं।

बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए।


फ़ॉलोअर

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

भारतीय भाषा दिवस

भारतीय भाषा दिवस 

कर्मचारी बीमा निगम के क्षेत्रीय कार्यालय, फरीदाबाद (हरियाणा )में हिंदी दिवस आयोजन संपन्न हुआ जिसकी अध्यक्षता संस्था के क्षेत्रीय निदेशक सोमेंदु विश्वास ने की।

मुख्य वक्ता और मुख्यअतिथी के रूप में भारतधर्मी समाज के राष्ट्रीय विचारक डॉ. नन्द लाल मेहता (वागीश )ने उपस्थित जन समाज से संवाद स्थापित करते हुए कहा कि जिस चौदह सितम्बर को आप हिंदी दिवस के रूप में  मनाते हैं तत्वत: वह  भारतीय भाषा दिवस है क्योंकि १४ सितम्बर को संविधान  सभा में सभी  प्रांतों में प्रांतीय भाषाओं में कार्य करने का संकल्प व्यक्त करते हुए यह कहा गया कि केंद्र से संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का प्रयोग होगा यानी हिंदी राजभाषा के रूप में स्वीकृत हुई। उसे राष्ट्रभाषा का रूप तब भी नहीं दिया गया।

 कौन थे खलनायक ?

भाषा के इस प्रशन को उलझाने वाले खलनायक कौन थे ये किसी से छिपा नहीं है। राष्ट्रभाषा तो क्या पंडित जवाहर लाल नेहरू हिंदी को राजभााषा के सम्मानित पद पर भी देखने के विरोधी थे। उन्होंने अपने इस विरोध को कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्त किया।

मद्रास में  १९४८ में एक सभा में बोलते हुए पंडित नेहरू ने हिंदी के राजभाषा बनाये जाने का विरोध किया। १३ सितम्बर  १९४९ को उन्होंने संविधान सभा में हिंदी के उत्साही पक्षधरों को फटकारा, और जब १४ सितम्बर को हिंदी को राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने का निर्णय लिया गया तो उन्होंने अपने प्रभाव से १५ वर्षों तक अंग्रेजी के प्रयोग को मान्य करा दिया।

संविधान की आठवीं सूची में अंग्रेजी को स्थान दिलवाने वाले मूल प्रेरक नेहरूजी थे। राज्य सभा के कांग्रेस सदस्य फ्रैंक एंथनी तो माध्यम भर थे।

भाषा के सांस्कृतिक प्रश्न को पंडित नेहरू ने कश्मीर समस्या की तरह उलझा दिया। जब १९६१ में देश के सभी मुख्यमंत्रियों  का एक सम्मलेन दिल्ली में हुआ तो तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ। राजेन्द्र प्रसाद ने सभी भारतीय भाषाओं को देवनागरी लिपि में लिखे जाने का एक नोट भेजा। केरल के उस समय के मुख्यमंत्री पोटमतन्नु पिल्लै ने राष्ट्रपति के उस नोट का अनुमोदन किया। वहां उपस्थित सभी मुख्यमंत्रियों का मनोभाव भी ऐसा ही था किन्तु प्रधानमन्त्री नेहरू के शिक्षामंत्री हुमायूँ कबीर ने इस प्रस्ताव का विरोध किया और लिपी का जो प्रश्न सदा के लिए सुलझने के द्वार पर था उस द्वार के दरवाज़े बंद कर दिए गये।

संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के वरिष्ठ फेलो रह चुके डॉ. वागीश ने भाषा के प्रश्न पर पंडित नेहरू द्वारा खेले गए इस खेल का पर्दाफाश किया। उन्होंने कहा कि जो प्रश्न भारतीय भाषा बनाम अंग्रेजी का था वह हिंदी बनाम अन्य भारतीय भाषाओं का प्रश्न बनकर रह गया। भाषा जैसे सांस्कृतिक प्रश्न को उलझाने का खमियाज़ा आज पूरा देश भोग रहा है।

इतना होने पर भी हिंदी भाषा ने अन्य विश्व भाषाओं के बीच जो प्रतिष्ठित स्थान बनाया है उसके पीछे इस भाषा की आंतरिक संरचना के वैज्ञानिक स्वरूप का सामर्थ्य प्रमाणित होता है।

जैश्रीकृष्णा !    

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें