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शनिवार, 26 सितंबर 2015

आउल बाबा की बान न जाय ,मूते तबही टांग उठाय

कहाँ से आता है व्यंग्य विनोद

जब राष्ट्रीय निर्मिति को कुछ तत्त्वों से ख़तरा पैदा होता है,न्यायप्रियता के कुछ लोग पंख कुतरने लगते हैं तब उसके प्रतिकार में ,उस क्रिया बल ,के उत्तर अंश रूप में एक असम्मतबल पैदा होता है। सगोत्रीय ही होता है यह क्रिया यानी सम्मत बल का.इसीलिए इसे  विरोधी या असम्मत बल कहा गया है । यही असम्मत बल व्यंग्य विनोद है। व्यंग्य कोई स्वतन्त्र विधा नहीं है साहित्य की. यह कथा ,कहानी,व्यष्टि की  करनी के कंधों में चढ़के आता है। आरूढ़ विधा है व्यंग्य विनोद। जो देखते ही देखते समष्टि बन जाता है। सर्वहितकारी बन जाता है। राष्ट्र के प्रति ,न्यायप्रियता के प्रति करुणा से पैदा होता है वयंग्य विनोद।

इन दिनों एक अभिनव  शब्द चलन में आया है आउलबाबा(पूर्व में मंदमति ,मंदबुद्धि बालक ) -अब इसके पीछे की कथा ये है ये बाबा ऐसी जगहों पर पहुँचते हैं जहां इन्हें बुलाया नहीं जाता। और वह भी कार्यक्रम समाप्त होने के बाद। एक बान  सी हो गई है इनकी पार्टी को इसकी। 

आउल बाबा की बान  न जाय ,मूते  तबही टांग उठाय  

पूर्व में  ऐसा ही एक शब्द खूब चल निकला  था -बिजूका।

दिखाऊ  तेिहल -जो खेत की रक्षा तो क्या कर सके उलटे इसके सर पे पक्षी आवें और बीट (Animal droppings ) कर जावें। इन दिनों भाषा बड़ी सूक्ष्म होती जा रही है। किसी को अपशब्द न कहकर अब सेकुलर कह दिया जाता है।

स्पष्ट कर देवें हम किसी के विरोधी नहीं हैं हम राष्ट्र समर्थक है और जब भी हमारी राष्ट्रीय अस्मिता को ,राष्ट्रीयनिर्मिति के तत्वों पे आंच आएगी ऐसा स्वत :स्फूर्त होता रहेगा। 

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