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गुरुवार, 3 सितंबर 2015

दर्पण आगे ठाढी के नित्य सँभारे पाग , ऐसी देहि पायके चौंच सँभारे काग

सुन्दर देहि देखकर उपजत है अनुराग ,

मढ़ी न होती चाम की तो जीवित खाते काग। 

दर्पण आगे ठाढी के नित्य सँभारे पाग ,

ऐसी देहि पायके चौंच सँभारे काग। 

ये दो बिम्ब हैं  माया के। ये देह हमारी एक माया है देही (जीवात्मा इससे 

न्यारा है )इसमें वास करता है। सारे संबंध देह के हैं। माया का कुनबा है 

हमारे गिर्द फिर भी इस विनाशी ,नश्वर देह और इसके संबंधों से हमारा 

इतना अनुराग है।जो वास्तव में मेरा है मेरी आत्मा जिसका शरीर है उस 

ठाकुर को मैं भुला हुआ हूँ। 

मरने के बाद इस शरीर की तीन गति होतीं हैं दफनाया गया (सुपुर्दे ख़ाक 

किया गया )तो कृमि ,कीड़ा  मकोड़ा में बदल जाएगा। जंगली जानवर की 

चपेट में किसी निर्जन क्षेत्र में मारा गया तो कालान्तर में मल (बिष्टा )में 

तब्दील हो जाएगा ,अग्नि के हवाले किया गया तो राख बन जाएगा। 

इस नश्वर जीव के बारे में कहा  गया है :

माला जपो न कर जपो ,जीभा कहो न नाम ,

सुमिरन मेरा हरि करै ,मैं पायो विश्राम। 



जाति हमारी आत्मा ,नाम  हमारा राम ,

पांच तत्व का पूतरा आएगी अब शाम। 

वाह्य श्रृंगार से देह-अभ्यास ही बढ़ता है असली श्रृंगार शील और संतोष 

का 

है। कौवा अपनी चौंच पैनाता कह रहा है हमारी नितबाहरी सजधज को 

देखके -खूब सज धज लो मरने के बाद तो हमारा ही भोजन बनोगे। 

संसार की  स्थिति  कुछ ऐसी ही है साधू संत चेताते हुए कहते हैं -

मत फ़िदा होना यारों दुनिया की खुशनसीबी पे ,

वर्क चढ़ा है चांदी का गोबर की मिठाई पर। 

सारा शरीर मलमूत्र का भांडा है चर्म न चढ़ा हो तो दिन रात कौवे भगाते 

रहिए जीते जी नोंच नोंच के खा जाते हमें कौवे। 

ऊपरा ऊपरी श्रृंगार में लगें हैं हम लोग। अन्तर्मुख वृत्ति नहीं है हमारी। 

साध्वी मीराबाई कहतीं हैं :

शील संतोष धरयो घट भीतर ,

संगता पकड़ रहूंगी बाला ,

मैं बैरागिन होंगी। 

असली श्रृंगार ठाकुर जी (टेढ़े -त्रिभंगी )की भक्ति में है। वैराग्य से शरीर 

को 

सजाओ। वैराग्य से ही शरीर का सौंदर्य बढ़ता है।बाहरी सजधज से तो मात्र 

देह अभ्यास बढ़ता है।  

गुरु के ज्ञान रंग्यो तन कपड़ा ,

मनमुद्रा पहरूँगी बाला। 

या तन को मैं करूँ कींदड़ी ,

रसना नाम रटूँगी। 

कींदड़ी एक प्रकार का वाद्य है। मीरा कहतीं हैं मेरा तन कींदड़ी बनके 

निशिदिन बजे। मेरा रोम रोम राम राम रटे -

पायो जी मैंने राम रत्न धन पायो 

मीरा बाई कहतीं हैं साधू वेश वाचक शब्द नहीं है गुणवाचक है कपड़ा रंगा 

के तो आजकल बहुत बाबाजी घूमते हैं। कथा कीर्तन में वाद्य बनके बजे 

मेरा मन। यही मेरी अभिलाषा है। सजधज है। 

गुरुजनों ने जो मार्ग बता दिया है उस पर मैं निष्ठा पूर्वक बढ़ूंगी। उसी में 

रचूँ बसूँगी। 

लोग कहें मीरा भई बावरी ,



सास कहे कुलनासी रे।



पग घुँघरू बाँधि मीरा नाचि रे।

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