गिरिराज -धरण लीला के निहितार्थ
यज्ञ का मानवतावादी स्वरूप है गिरिराजधरण लीला। यज्ञ का एक अर्थ विष्णु होता है। विष्णु अर्थात जो व्याप्त है व्यापक है प्रकृति में। प्रकृति के प्रत्येक दीन-हीन प्राणि को भरपेट भोजन कराना यज्ञ है। केवल अग्नि में समिधा डालना यज्ञ नहीं है वह हवन कहलाता है। भगवान गीता में कहते हैं यज्ञ भी मैं ही हूँ ,समिधा ,हव्यसामिग्री,यज्ञ की अग्नि ,धृत डालने वाला लेडल(करछी ,चमचा ) भी मैं ही हूँ घृत भी मैं हूँ।हवन करता भी मैं ही हूँ।
भगवान कहते हैं किसी भूखे को यदि भोजन कराया जाए उससे मैं जितना प्रसन्न होता हूँ उतना यज्ञ से नहीं। बेशक भगवान के दो मुख हैं एक अग्नि और दूसरा ब्राह्मण का मुख जिससे ज्ञान निकलता है जो श्रोत्रिय है श्रुतिज्ञ है। वेदों का मर्मज्ञ है वह ब्राह्मण है।
भागवदपुराण के दशम स्कंध में वृत्तांत है एक बार भगवान बालगोपालन ,ग्वालन के संग गैया चराते चराते बहुत दूर निकल आये साथ में दाऊजी (बड़े भाई बलराम )भी थे.भगवान को बड़ी जोर से भूख लगी उन्होंने ग्वाल बालन से कहा भैया नजदीक ही कुछ श्रोत्रिय ब्राह्मण विधिपूर्वक यज्ञ कर रहें हैं उनके पास भोज्य सामिग्री है ले आओ कहना कन्हैया और उनके बड़े भैया ( बलराम) को बड़ी भूख लगी है निरगुनिया ब्राह्मण ने बालकों की गुहार सुनी नेत्र उठाकर देखा और फिर उनकी नितांत उपेक्षा की न तो कुछ भोज्य पदार्थ दिया ही और न ही न की।
ग्वाल भगवान के पास नैराश्य लिए लौट आये भगवान बोले निराश होने की कोई आवश्यकता नहीं है आप लोग गलत जगह पहुँच गए विप्र पत्नियों (ब्राह्मणियों )के पास जाओ कहो भगवान और उनके बड़े भाई दाऊ कू बहुत भूख लगी है ,मैया कछु अन्न दे दो ।कन्हैया ने भेजा है हमें।
अपनी पर्ण कुटियों में विप्र पत्नियां भोग सामिग्री तैयार किए बैठी थीं । केवल एक विप्र पत्नी अपने पति के साथ यज्ञ में बैठी थी वह विधिविधान छोड़के आ नहीं सकती थी जब उसने देखा शेष विप्र पत्नियां पकवान के थाल लिए ग्वालन के संग ऐसे दौड़ रहीं है जैसे बरसात में उफनती नदियां बाँध तोड़कर समुन्दर की तरफ दौड़तीं हैं। उसने कृष्ण विरह में अपने प्राण ही त्याग दिए। शेष अपने पतियों की चेतावनी को अनसुना करती भगवान और उनके सखाओं के पास जल्दी से जल्दी दौड़ के पहुंचना चाहती रहीं सो दौड़ती रहीं तेज़ और तेज़।और उफान लेती बरसाती नदी की वेगवती धारा सी सामाजिक तटबंधों को तोड़ती झट पहुँच भी गईं अपने भगवान के पास।
भगवान जमके जीमे साथ ही साथ भोजन की तारीफ़ करते जाएं और खाते जाएं वाह क्या खीर बनाई है ,क्या जलेबियाँ बनाईं हैं।सब चट कर गए भगवान और उनके सखा। भोग भी न छोड़ा। फिर बोले अब तुम जाओ पत्नी धर्म निभाओ तुम्हारे पति तुम्हारी बाट जोह रहें हैं । ब्राह्मणियां बोली भगवान अब हम कहाँ जाएं। हम तो अपने पतियों की चेतावनी की उपेक्षा करके आईं हैं। हमन ने अब कौन स्वीकार करेगा। जिसे भगवान स्वीकार कर लेते हैं उसकी भला कौन उपेक्षा कर सकता है भोली भाली ब्राह्मणियां कहाँ से समझ पातीं। न उन्होंने वेद पढ़े थे न पुराण ,कर्म काण्ड से भी वे वाकिफ नहीं थीं।
भगवान ने कहा तुम जाओ तो मैं हूँ न। पत्नियों के आश्चर्य की तब सीमा न रही जब उन्होंने देखा उनके पति बेसब्री से उनका इंतज़ार कर रहें हैं कह उठे हम धन्य हैं जो हमें तुम्हारे जैसी पत्नियां मिलीं। हम तो अपने ज्ञान के अहंकार में ही चूर रहे प्रभु दर्शन से इसीलिए वंचित रहे हमने प्रभु की लीला को पहचाना ही नहीं।
भगवान भाव देखते हैं। भाव के भूखे हैं।यज्ञ सामग्री के नहीं।
प्रसंग गिरिराजधरण का है। परम्परा थी ब्रज की ,कि दीपावली के पास इंद्र पूजा का विधान था। इस अवसर पे तरह तरह के पकवान बनाकर अग्नि को अर्पित किये जाते थे इंद्र का आवाहन किया जाता था। जनविश्वास था यज्ञ से प्रसन्न होकर ही इंद्र वर्षा करते हैं। वर्षा से फिर भूमि से औषधियां पैदा होतीं हैं। घास पैदा होतीं तरह तरह की ।
बालक कृष्ण ने जब देखा नन्द बाबा इस समारोह की तैयारियों में जुटे हुए हैं तो उन्होंने बड़े भोलेपन से पूछा बाबा ये सब इत्ते सारे पकवान क्यों और किसलिए और किसके लिए बनाएं हैं। कौन खायेगा इतने पकवान। नन्द बाबा ने पूरी कथा विस्तार से बतला दी इंद्र हमारे देवता हैं। हर साल उनकी पूजा होती है। बालक बोला अच्छा। कहाँ हैं तुम्हारे इंद्र क्या उन्होंने तुम्हें कभी दर्शन दिए ?तुमने उन्हें देखा है। बालकों में बड़ा कौतुक होता है वह प्रश्नों की झड़ी लगा देते हैं। बच्चों की एक स्वतन्त्र सोच होती है हम उसपर ढक्कन लगा देते हैं इसीलिए समाज को न तो कुछ नया मिलपाता है न ही कोई क्रान्ति हो पाती है।
बालक कृष्ण कहते हैं :बाबा !कर्म से ही प्राणि का जन्म होता है कर्म से ही मृत्यु। सुख दुःख ये सब हमें हमारे कर्म से ही प्राप्त होते रहते हैं। तुम प्रत्यक्ष देवों को छोड़कर इंद्र की उपासना क्यों करते हो उसे तो तुमने कभी देखा नहीं।
बाबा बोले कन्हैया तुम अभी छोटे हो तुम कुछ नहीं समझोगे कन्हैया बोले बाबा हम सब समझते हैं और तुम्हें भी समझा सकते हैं। गाय की तो तुम उपेक्षा कर रहे हो जिससे हमें वर्षभर दूध मिलता है खेती के लिए बैल मिलते हैं। खेलबे को बछड़े बछिया मिलते हैं। गोवर्धन परबत की तो आप अनदेखी कर रहे हो जिससे हमें तमाम किस्म की औषधियां मिलती हैं कंदमूल मिलते हैं तमाम वनस्पतियाँ मिलतीं हैं। ब्राह्मणों की तुम सरासर अनदेखी कर रहे हो जो साक्षात देव हैं जिनके मुख से ज्ञान की अविरल धारा बहती है। जो श्रुतियों के ज्ञाता है। इनके लिए यज्ञ करो उसी सामग्री से जो इंद्र के लिए तैयार की है। गौशाला बनाओ गाय का संरक्षण करो। परबत श्रृंखलाओं को बचाओ। आज के सन्दर्भ में जब कि पहाड़ नौचे जा चुके हैं बालकृष्ण के उदगार बड़े मौज़ूं हैं जब की देशी गायों के लिए विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। गौ ह्त्या धड़ल्ले से कथित सेकुलर कर रहें हैं और मुंबई नगरियाँ में हिन्दू शिवसेना का चोला पहनके मांस बेच रही है।
आज जबकि ब्रज की जमुना गंधा रही है यह लीला और इसके निहितार्थ बड़े मौज़ू हैं।
और ज्ञान दाता शिक्षक अगर असंतुष्ट हुआ तो समाज कैसे चलेगा। ब्राह्मण समाज का शिक्षण ही तो करता था इसलिए उसके लिए अन्न की व्यवस्था समाज करता था। कृष्ण ने पहली सामाजिक क्रान्ति ब्रज के भोले भाले कृषकों की ओट लेके की। ब्रजवासी सहर्ष तैयार हुए। इंद्र ने मूसलाधार बारिश की कृष्ण ने गोवर्धन परबत धारण किया अपने उलटे हाथ की कनिष्ठा पर। ग्वालों ने भी अपनी लठिया लगाई।ब्रज का बालबांका भी न हुआ। इंद्र शर्मिंदा हुआ उसका मानमर्दन हुआ।
जहां भगवान होते हैं वहां सुख शान्ति होती है।अहंकार वहां से उलटे पाँव भागता है।
अन्नकूट का भोग लगाया गया। कुत्ता से लेकर चांडाल तक ब्रजमंडल के तमाम पशु पक्षियों को सबको प्रसाद वितरण किया गया। गैयान कु पूजा गया। ब्रज में कोई भूखा न रहा। एक सचेत समाज क्रान्ति के लिए हमेशा तैयार रहता है जड़ समाज परिवर्तन विरोधी होता है। आज यही स्थिति है। जबकि आज से ५००० बरस पहले हमारा कृषक समाज एक सामाजिक क्रान्ति के लिए तैयार हो गया था। गोवर्धन परबत का गइयान के दूध सु अभिषेक किया गया। देखते ही देखते अन्न का भी एक पहाड़ बन गया।
सब लोगन ने गाया -
गिरिराजधरण प्रभु तुमरी शरण ,गिरिराजधरण श्रीजी तुमरी शरण ,
श्री वल्लभ बिठ्ठल गिरधारी ,यमुनाजी की बलिहारी।
मेरे भैया अच्छे दिन आ चुके हैं रोना धोना छोड़ो। सेकुलरों से सावधान रहो।
बीवेअर आफ सेकुलर्स।
यज्ञ का मानवतावादी स्वरूप है गिरिराजधरण लीला। यज्ञ का एक अर्थ विष्णु होता है। विष्णु अर्थात जो व्याप्त है व्यापक है प्रकृति में। प्रकृति के प्रत्येक दीन-हीन प्राणि को भरपेट भोजन कराना यज्ञ है। केवल अग्नि में समिधा डालना यज्ञ नहीं है वह हवन कहलाता है। भगवान गीता में कहते हैं यज्ञ भी मैं ही हूँ ,समिधा ,हव्यसामिग्री,यज्ञ की अग्नि ,धृत डालने वाला लेडल(करछी ,चमचा ) भी मैं ही हूँ घृत भी मैं हूँ।हवन करता भी मैं ही हूँ।
भगवान कहते हैं किसी भूखे को यदि भोजन कराया जाए उससे मैं जितना प्रसन्न होता हूँ उतना यज्ञ से नहीं। बेशक भगवान के दो मुख हैं एक अग्नि और दूसरा ब्राह्मण का मुख जिससे ज्ञान निकलता है जो श्रोत्रिय है श्रुतिज्ञ है। वेदों का मर्मज्ञ है वह ब्राह्मण है।
भागवदपुराण के दशम स्कंध में वृत्तांत है एक बार भगवान बालगोपालन ,ग्वालन के संग गैया चराते चराते बहुत दूर निकल आये साथ में दाऊजी (बड़े भाई बलराम )भी थे.भगवान को बड़ी जोर से भूख लगी उन्होंने ग्वाल बालन से कहा भैया नजदीक ही कुछ श्रोत्रिय ब्राह्मण विधिपूर्वक यज्ञ कर रहें हैं उनके पास भोज्य सामिग्री है ले आओ कहना कन्हैया और उनके बड़े भैया ( बलराम) को बड़ी भूख लगी है निरगुनिया ब्राह्मण ने बालकों की गुहार सुनी नेत्र उठाकर देखा और फिर उनकी नितांत उपेक्षा की न तो कुछ भोज्य पदार्थ दिया ही और न ही न की।
ग्वाल भगवान के पास नैराश्य लिए लौट आये भगवान बोले निराश होने की कोई आवश्यकता नहीं है आप लोग गलत जगह पहुँच गए विप्र पत्नियों (ब्राह्मणियों )के पास जाओ कहो भगवान और उनके बड़े भाई दाऊ कू बहुत भूख लगी है ,मैया कछु अन्न दे दो ।कन्हैया ने भेजा है हमें।
अपनी पर्ण कुटियों में विप्र पत्नियां भोग सामिग्री तैयार किए बैठी थीं । केवल एक विप्र पत्नी अपने पति के साथ यज्ञ में बैठी थी वह विधिविधान छोड़के आ नहीं सकती थी जब उसने देखा शेष विप्र पत्नियां पकवान के थाल लिए ग्वालन के संग ऐसे दौड़ रहीं है जैसे बरसात में उफनती नदियां बाँध तोड़कर समुन्दर की तरफ दौड़तीं हैं। उसने कृष्ण विरह में अपने प्राण ही त्याग दिए। शेष अपने पतियों की चेतावनी को अनसुना करती भगवान और उनके सखाओं के पास जल्दी से जल्दी दौड़ के पहुंचना चाहती रहीं सो दौड़ती रहीं तेज़ और तेज़।और उफान लेती बरसाती नदी की वेगवती धारा सी सामाजिक तटबंधों को तोड़ती झट पहुँच भी गईं अपने भगवान के पास।
भगवान जमके जीमे साथ ही साथ भोजन की तारीफ़ करते जाएं और खाते जाएं वाह क्या खीर बनाई है ,क्या जलेबियाँ बनाईं हैं।सब चट कर गए भगवान और उनके सखा। भोग भी न छोड़ा। फिर बोले अब तुम जाओ पत्नी धर्म निभाओ तुम्हारे पति तुम्हारी बाट जोह रहें हैं । ब्राह्मणियां बोली भगवान अब हम कहाँ जाएं। हम तो अपने पतियों की चेतावनी की उपेक्षा करके आईं हैं। हमन ने अब कौन स्वीकार करेगा। जिसे भगवान स्वीकार कर लेते हैं उसकी भला कौन उपेक्षा कर सकता है भोली भाली ब्राह्मणियां कहाँ से समझ पातीं। न उन्होंने वेद पढ़े थे न पुराण ,कर्म काण्ड से भी वे वाकिफ नहीं थीं।
भगवान ने कहा तुम जाओ तो मैं हूँ न। पत्नियों के आश्चर्य की तब सीमा न रही जब उन्होंने देखा उनके पति बेसब्री से उनका इंतज़ार कर रहें हैं कह उठे हम धन्य हैं जो हमें तुम्हारे जैसी पत्नियां मिलीं। हम तो अपने ज्ञान के अहंकार में ही चूर रहे प्रभु दर्शन से इसीलिए वंचित रहे हमने प्रभु की लीला को पहचाना ही नहीं।
भगवान भाव देखते हैं। भाव के भूखे हैं।यज्ञ सामग्री के नहीं।
प्रसंग गिरिराजधरण का है। परम्परा थी ब्रज की ,कि दीपावली के पास इंद्र पूजा का विधान था। इस अवसर पे तरह तरह के पकवान बनाकर अग्नि को अर्पित किये जाते थे इंद्र का आवाहन किया जाता था। जनविश्वास था यज्ञ से प्रसन्न होकर ही इंद्र वर्षा करते हैं। वर्षा से फिर भूमि से औषधियां पैदा होतीं हैं। घास पैदा होतीं तरह तरह की ।
बालक कृष्ण ने जब देखा नन्द बाबा इस समारोह की तैयारियों में जुटे हुए हैं तो उन्होंने बड़े भोलेपन से पूछा बाबा ये सब इत्ते सारे पकवान क्यों और किसलिए और किसके लिए बनाएं हैं। कौन खायेगा इतने पकवान। नन्द बाबा ने पूरी कथा विस्तार से बतला दी इंद्र हमारे देवता हैं। हर साल उनकी पूजा होती है। बालक बोला अच्छा। कहाँ हैं तुम्हारे इंद्र क्या उन्होंने तुम्हें कभी दर्शन दिए ?तुमने उन्हें देखा है। बालकों में बड़ा कौतुक होता है वह प्रश्नों की झड़ी लगा देते हैं। बच्चों की एक स्वतन्त्र सोच होती है हम उसपर ढक्कन लगा देते हैं इसीलिए समाज को न तो कुछ नया मिलपाता है न ही कोई क्रान्ति हो पाती है।
बालक कृष्ण कहते हैं :बाबा !कर्म से ही प्राणि का जन्म होता है कर्म से ही मृत्यु। सुख दुःख ये सब हमें हमारे कर्म से ही प्राप्त होते रहते हैं। तुम प्रत्यक्ष देवों को छोड़कर इंद्र की उपासना क्यों करते हो उसे तो तुमने कभी देखा नहीं।
बाबा बोले कन्हैया तुम अभी छोटे हो तुम कुछ नहीं समझोगे कन्हैया बोले बाबा हम सब समझते हैं और तुम्हें भी समझा सकते हैं। गाय की तो तुम उपेक्षा कर रहे हो जिससे हमें वर्षभर दूध मिलता है खेती के लिए बैल मिलते हैं। खेलबे को बछड़े बछिया मिलते हैं। गोवर्धन परबत की तो आप अनदेखी कर रहे हो जिससे हमें तमाम किस्म की औषधियां मिलती हैं कंदमूल मिलते हैं तमाम वनस्पतियाँ मिलतीं हैं। ब्राह्मणों की तुम सरासर अनदेखी कर रहे हो जो साक्षात देव हैं जिनके मुख से ज्ञान की अविरल धारा बहती है। जो श्रुतियों के ज्ञाता है। इनके लिए यज्ञ करो उसी सामग्री से जो इंद्र के लिए तैयार की है। गौशाला बनाओ गाय का संरक्षण करो। परबत श्रृंखलाओं को बचाओ। आज के सन्दर्भ में जब कि पहाड़ नौचे जा चुके हैं बालकृष्ण के उदगार बड़े मौज़ूं हैं जब की देशी गायों के लिए विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। गौ ह्त्या धड़ल्ले से कथित सेकुलर कर रहें हैं और मुंबई नगरियाँ में हिन्दू शिवसेना का चोला पहनके मांस बेच रही है।
आज जबकि ब्रज की जमुना गंधा रही है यह लीला और इसके निहितार्थ बड़े मौज़ू हैं।
और ज्ञान दाता शिक्षक अगर असंतुष्ट हुआ तो समाज कैसे चलेगा। ब्राह्मण समाज का शिक्षण ही तो करता था इसलिए उसके लिए अन्न की व्यवस्था समाज करता था। कृष्ण ने पहली सामाजिक क्रान्ति ब्रज के भोले भाले कृषकों की ओट लेके की। ब्रजवासी सहर्ष तैयार हुए। इंद्र ने मूसलाधार बारिश की कृष्ण ने गोवर्धन परबत धारण किया अपने उलटे हाथ की कनिष्ठा पर। ग्वालों ने भी अपनी लठिया लगाई।ब्रज का बालबांका भी न हुआ। इंद्र शर्मिंदा हुआ उसका मानमर्दन हुआ।
जहां भगवान होते हैं वहां सुख शान्ति होती है।अहंकार वहां से उलटे पाँव भागता है।
अन्नकूट का भोग लगाया गया। कुत्ता से लेकर चांडाल तक ब्रजमंडल के तमाम पशु पक्षियों को सबको प्रसाद वितरण किया गया। गैयान कु पूजा गया। ब्रज में कोई भूखा न रहा। एक सचेत समाज क्रान्ति के लिए हमेशा तैयार रहता है जड़ समाज परिवर्तन विरोधी होता है। आज यही स्थिति है। जबकि आज से ५००० बरस पहले हमारा कृषक समाज एक सामाजिक क्रान्ति के लिए तैयार हो गया था। गोवर्धन परबत का गइयान के दूध सु अभिषेक किया गया। देखते ही देखते अन्न का भी एक पहाड़ बन गया।
सब लोगन ने गाया -
गिरिराजधरण प्रभु तुमरी शरण ,गिरिराजधरण श्रीजी तुमरी शरण ,
श्री वल्लभ बिठ्ठल गिरधारी ,यमुनाजी की बलिहारी।
मेरे भैया अच्छे दिन आ चुके हैं रोना धोना छोड़ो। सेकुलरों से सावधान रहो।
बीवेअर आफ सेकुलर्स।
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