उदर भरै सोहि धर्म सिखावा
आज की शिक्षा अर्थ और काम प्रधान है। मात्र उदर पूर्ती का साधन है। ईसाइयत से प्रभावित स्कूल खचाखच
भरे
रहते हैं। इन्हीं स्कूलों में अपने नौनिहालों को भेजकर हम गौरवान्वित हो रहे हैं और इनमें भेजने के लिए भी
हमें
एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ता है। कई मर्तबा तो बच्चों को घर से बहुत दूर भेजना पड़ता है। बड़े लोगों के
बच्चों
को जल्दी ही बोर्डिंग स्कूलों में भेज दिया जाता है।यहां वे इन्हें देवता बनने भेजते हैं या दैत्य वे ही जानें।
यहां से वे पूर्ण आसुरी भावापन्न होकर निकलते हैं। अब ये दिन चढ़े तक सोते हैं। जो नहीं खाना चाहिए वे खाते
हैं जो नहीं पीना चाहिए वह पीते हैं। और जो नहीं करना चाहिए वही करते हैं।
माँ नहिं मातु ,पिता नहीं देवा ,असाधुन संग करावें सेवा ,
जिनके ये आचरण भवानी ,ते जानो निसचर संतानी ।
इस सबके लिए दोषी किसे ठहराया जाए। क्या नौनिहालों को ?ये तो उत्पाद हैं उस एकांगी शिक्षा का जो
आज़ादी के बाद जिन लोगों के हाथ इस देश की बाग़डोर आई वे खुद इसी शिक्षा में दीक्षित हो ईसाइयत की
जद
में थे। हिन्दु को वे गैर -
मुस्लिम कहना पसंद करते थे।देश के प्रथम प्रधानमंत्री कहते थे व्यास नाम का एक विद्वान हुआ है उसने
मनोरंजन के लिए कुछ उपन्यास लिखें हैं जिन्हें पुराण कहा जाता है। इनमें सच्ची घटनाएं नहीं हैं।
ये सब इनकी विलायती शिक्षा और रहनी सहनी का सहज प्रतिफलन था।
यहां विलायत से ये अपने निश -चरत्व का
प्रमाण पत्र लेकर ही निकलते थे। काश भारत का नेतृत्व आज़ादी के बाद एक भारतीय संस्कृति में पले बढे
अनुप्राणित नायक के हाथों में आया हुआ होता तो आज देश का परिदृश्य कुछ और होता।
अब तो पहले माँ बाप को सुधरना पड़ेगा । बच्चों को बचपन से ही सतसंग में ले जाना पड़ेगा। बचपन के अच्छे
संस्कार अच्छे भविष्य को सुनिश्चित बनाते हैं। कभी न कभी ये बीज रूप में रहे आये संस्कार मुखरित ज़रूर
होते हैं।
यकीन मानियेगा जब तक हमने सत्संग नहीं किया हमारे जीवन का आरम्भ ही नहीं हुआ। अब लगता है
जितनी देर हमने सतसंग सुना उतनी ही देर जीवन को जीया।
सुसुप्ति में थे सत्संगी संस्कार। मौक़ा मिला तो पल्लवित हुए। अब साफ़ याद पड़ता है अपने बचपन में हम
अपने कच्चे मकान की छत पे सोये पड़े होते थे खुले आसमान के नीचे। माँ की आवाज़ ही हमें उठाती थी - दूसरे
अध्याय में भगवान ने अर्जुन से कहा हे अर्जुन ये आत्मा न तो किसी को मारता ही है और न ही किसी के द्वारा
मारा जाता है। अत : तुम कायरों जैसी बातें न करो ,अस्त्र उठाओ और धर्म रक्षार्थ युद्ध करो।
नीचे आते तो देखते माँ गीता के पास ही लोटे में रखा जल तुलसी जी को दे रहीं होतीं। नाश्ते के बाद नियम
निष्ठ
होकर भूतेश्वर मंदिर पर सत्संग के लिए पहुँचती ।
साधू संतों का साथ उसकी कृपा से ही मिलता है जो सब आत्माओं का आत्मा है। उसी की कृपा से सुसुप्ति से
व्यक्ति बाहर आता है। बस उसकी कृपा बनी रहे।
गीता का अनुशीलन आज हर स्कूल में होवे तो फिर से वह विश्वबंधुत्व विश्वकल्याण की भावना रखने वाली
सनातन धर्म की धारा अनुप्राणित होवे। अपनी ही सौंधी मिट्टी की खुशबू से अनुप्राणित शुद्ध देसी संस्कारों
वाले एक जननायक के हाथों में आज देश की बागडोर आ गई है।इस देश में देसी गाय का संरक्षण हो ,गो ह्त्या
और गौ मांस का निर्यात बंद हो। गौ हमारी ही नहीं पूरे विश्व की माता है। हमारी जैविक माता तो हमें साल दो
साल तक ही दुग्ध पान कराती पर गौ तो आखिरी सांस तक हमें दूध मयस्सर करवाती है।गोपाल की प्रिय है गौ।
उसकी सेवा सनातनी संस्कृति का पोषण है।वत्सला है गऊ। बस इतना समझना होगा।
जयश्री कृष्णा !
आज की शिक्षा अर्थ और काम प्रधान है। मात्र उदर पूर्ती का साधन है। ईसाइयत से प्रभावित स्कूल खचाखच
भरे
रहते हैं। इन्हीं स्कूलों में अपने नौनिहालों को भेजकर हम गौरवान्वित हो रहे हैं और इनमें भेजने के लिए भी
हमें
एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ता है। कई मर्तबा तो बच्चों को घर से बहुत दूर भेजना पड़ता है। बड़े लोगों के
बच्चों
को जल्दी ही बोर्डिंग स्कूलों में भेज दिया जाता है।यहां वे इन्हें देवता बनने भेजते हैं या दैत्य वे ही जानें।
यहां से वे पूर्ण आसुरी भावापन्न होकर निकलते हैं। अब ये दिन चढ़े तक सोते हैं। जो नहीं खाना चाहिए वे खाते
हैं जो नहीं पीना चाहिए वह पीते हैं। और जो नहीं करना चाहिए वही करते हैं।
माँ नहिं मातु ,पिता नहीं देवा ,असाधुन संग करावें सेवा ,
जिनके ये आचरण भवानी ,ते जानो निसचर संतानी ।
इस सबके लिए दोषी किसे ठहराया जाए। क्या नौनिहालों को ?ये तो उत्पाद हैं उस एकांगी शिक्षा का जो
आज़ादी के बाद जिन लोगों के हाथ इस देश की बाग़डोर आई वे खुद इसी शिक्षा में दीक्षित हो ईसाइयत की
जद
में थे। हिन्दु को वे गैर -
मुस्लिम कहना पसंद करते थे।देश के प्रथम प्रधानमंत्री कहते थे व्यास नाम का एक विद्वान हुआ है उसने
मनोरंजन के लिए कुछ उपन्यास लिखें हैं जिन्हें पुराण कहा जाता है। इनमें सच्ची घटनाएं नहीं हैं।
ये सब इनकी विलायती शिक्षा और रहनी सहनी का सहज प्रतिफलन था।
यहां विलायत से ये अपने निश -चरत्व का
प्रमाण पत्र लेकर ही निकलते थे। काश भारत का नेतृत्व आज़ादी के बाद एक भारतीय संस्कृति में पले बढे
अनुप्राणित नायक के हाथों में आया हुआ होता तो आज देश का परिदृश्य कुछ और होता।
अब तो पहले माँ बाप को सुधरना पड़ेगा । बच्चों को बचपन से ही सतसंग में ले जाना पड़ेगा। बचपन के अच्छे
संस्कार अच्छे भविष्य को सुनिश्चित बनाते हैं। कभी न कभी ये बीज रूप में रहे आये संस्कार मुखरित ज़रूर
होते हैं।
यकीन मानियेगा जब तक हमने सत्संग नहीं किया हमारे जीवन का आरम्भ ही नहीं हुआ। अब लगता है
जितनी देर हमने सतसंग सुना उतनी ही देर जीवन को जीया।
सुसुप्ति में थे सत्संगी संस्कार। मौक़ा मिला तो पल्लवित हुए। अब साफ़ याद पड़ता है अपने बचपन में हम
अपने कच्चे मकान की छत पे सोये पड़े होते थे खुले आसमान के नीचे। माँ की आवाज़ ही हमें उठाती थी - दूसरे
अध्याय में भगवान ने अर्जुन से कहा हे अर्जुन ये आत्मा न तो किसी को मारता ही है और न ही किसी के द्वारा
मारा जाता है। अत : तुम कायरों जैसी बातें न करो ,अस्त्र उठाओ और धर्म रक्षार्थ युद्ध करो।
नीचे आते तो देखते माँ गीता के पास ही लोटे में रखा जल तुलसी जी को दे रहीं होतीं। नाश्ते के बाद नियम
निष्ठ
होकर भूतेश्वर मंदिर पर सत्संग के लिए पहुँचती ।
साधू संतों का साथ उसकी कृपा से ही मिलता है जो सब आत्माओं का आत्मा है। उसी की कृपा से सुसुप्ति से
व्यक्ति बाहर आता है। बस उसकी कृपा बनी रहे।
गीता का अनुशीलन आज हर स्कूल में होवे तो फिर से वह विश्वबंधुत्व विश्वकल्याण की भावना रखने वाली
सनातन धर्म की धारा अनुप्राणित होवे। अपनी ही सौंधी मिट्टी की खुशबू से अनुप्राणित शुद्ध देसी संस्कारों
वाले एक जननायक के हाथों में आज देश की बागडोर आ गई है।इस देश में देसी गाय का संरक्षण हो ,गो ह्त्या
और गौ मांस का निर्यात बंद हो। गौ हमारी ही नहीं पूरे विश्व की माता है। हमारी जैविक माता तो हमें साल दो
साल तक ही दुग्ध पान कराती पर गौ तो आखिरी सांस तक हमें दूध मयस्सर करवाती है।गोपाल की प्रिय है गौ।
उसकी सेवा सनातनी संस्कृति का पोषण है।वत्सला है गऊ। बस इतना समझना होगा।
जयश्री कृष्णा !
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