श्रीमदभगवद गीता अध्याय चार :ज्ञानकर्मसंन्यास योग ;श्लोक (१ - ५ )
इमं विवस्वते योगं ,प्रोक्तवान अहम अव्ययम ,
विवस्वान मनवे प्राह ,मनुर इक्ष्वाकवे अब्रवीत। (४. १ )
एवं परम्पराप्राप्तम ,इमं राजर्षयो विदु :
स कालेनेह महता ,योगो नष्ट : परंतप। (४. २ )
स एवाय मया ते अद्य ,योग : प्रोक्त : पुरातन :
भक्तो असि मे सखा चेति ,रहस्यं ह्योतद उत्तमं। (४. ३ )
व्याख्या :(१-३ )श्लोक
श्री भगवान् बोले -मैंने कर्म योग के इस अविनाशी सिद्धांत को सूर्यवंशी राजा विवस्वान को सिखाया ,विवस्वान ने अपने पुत्र मनु से कहा तथा मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को सिखाया। इस प्रकार परम्परा से प्राप्त हुए कर्मयोग को राजर्षियों ने जाना ;परन्तु हे परन्तप (शत्रुओं को अपने प्रताप से तपाने झुलसाने वाले अर्थात अर्जुन ) ,बहुत दिनों के बाद यह ज्ञान इस पृथ्वी लोक में लुप्त सा हो गया। तुम मेरे भक्त और प्रिय मित्र हो ,इसीलिए वही पुरातन कर्म योग आज मैंने तुम्हें कहा है ,क्योंकि यह कर्मयोग एक उत्तम रहस्य है। (४.०१ -०३ )
अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म ,परं जन्म विवस्वत :
कथं एतद विजानीयां ,त्वम आदौ प्रोक्तवान इति। (४ )(४.०४ )
अर्जुन बोले -आपका जन्म तो अभी हुआ है तथा सूर्यवंशी राजा विवस्वान का जन्म सृष्टि के आदि में हुआ था ,अत :मैं कैसे जानूं कि आप ही ने इस योग को कहा था ?((४.०४ )
अर्जुन को शंका होती है कि उसके समकालीन श्री कृष्ण ने किस प्रकार बहुत पहले प्राचीन काल में पैदा हुए राजा विवस्वान को कर्म योगशाश्त्र का उपदेश दिया था। गीता द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत मात्र पांच हज़ार वर्ष पुराना नहीं है ,वरन आदियुगीन है। मानवता के कल्याण हेतु भगवान् द्वारा इसका पुन :वर्रण किया गया है। समस्त अवतारी पुरुष विस्मृत सत्य की अग्नि को पुनर्प्रभासित करने आते हैं। जो भी हम सुनते या
पढ़ते हैं ,वह सब विभिन्न कालों में भिन्न -भिन्न महापुरुषों द्वारा पहले भी कहा जा चुका है।
प्रभु के अवतार का उद्देश्य
श्रीभगवान उवाच
बहूनि मे व्यतितानी ,जन्मानी तव चार्जुन ,
तान्यहं वेद सर्वाणि ,न त्वं वेत्थ परन्तप। (५ )
श्री भगवान् बोले -हे अर्जुन ,मेरे और तुम्हारे बहुत सारे जन्म हो चुके हैं ,उन सबको मैं जानता हूँ ,पर तुम नहीं जानते।
विशेष :संन्यास शब्द का शब्दिक अर्थ :
सम +न्यास =किसी चीज़ को संभाल के रख देना।
लेकिन कर्म का त्याग अहंकार का कारण बन जाता है यदि मन की कच्ची स्थिति में कर्म संन्यास लिया जाए तो।
इसलिए ज्ञान की भूमि पर ही कर्म संन्यास लिया जाना चाहिए। यही त्याग परिपक्व त्याग होता है। गीता में श्री शब्द केवल भगवान् के लिए प्रयुक्त हुआ है जिसका एक अर्थ है "आकर्षण "ऐश्वर्य ,नित्य जो बना रहे। जिसमें नित्यत्व हो ऐसा आकर्षण जीव में संसार की अन्य वस्तुओं में नहीं है। अर्जुन जीव धर्म के प्रतिनिधि हैं इसलिए उनके या किसी अन्य के लिए यह शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है।
समय के साथ लोगों की रूचि आज बदल गई है। अब लोग भोगवाद टोने टोटके की तरफ बढ़ रहें हैं योग इसीलिए विस्मृत हो गया है। भगवान् की तरफ उनका ध्यान नहीं है फ़ालतू फंड के गुरुओं की तरफ है। भगवान् की विनम्रता देखिये अर्जुन को अपना सखा ,प्रेमी ही कह रहे हैं सेवक नहीं।
हमारा सनातन धर्म कर्म फल पर आधारित है कर्म फल पुनर्जन्म पर आधारित है।कई धर्मों में पुनर्जन्म की अवधारणा ही नहीं है इसलिए फल की चिंता ही नहीं है पाप पुण्य सब धान सत्ताइस सेर।
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