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शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

श्रीमदभगवत गीता तीसरा अध्याय :कर्म योग

श्रीमदभगवत गीता तीसरा अध्याय :कर्म योग 

(१ )अर्जुन बोले -हे जनार्दन ,यदि आप कर्म से ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं ,तो फिर हे केशव ,आप मुझे इस (युद्ध जैसे )भयंकर कर्म में क्यों लगा रहे हैं ?आप मिश्रित वचनों से मेरी बुद्धि को भ्रमित (विमोहित )कर रहें हैं। अत :आप उस एक बात को निश्चित रूप से कहिये ,जिससे मेरा कल्याण हो। 

(२ )लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने वाले ,प्रसन्न करने वाले आप तो स्वभाव से ही कल्याण करने वाले हो मेरे लिए उस एक रास्ते को बता दो जिससे मैं अपने जीवन में कल्याण को प्राप्त हो सकूं। कभी आप कर्म को शिखर पे खड़ा कर देते हो कभी ज्ञान को।  

(३ ) श्रीभगवान् बोले -हे निष्पाप अर्जुन ,इस लोक में दो प्रकार की निष्ठामेरे द्वारा पहले कही गई है। जिनकी रूचि ज्ञान में होती है ,उनकी निष्ठा ज्ञान योग से और कर्म में रूचि वालों की निष्ठा कर्म योग से होती है। 

ज्ञान योग को सांख्य - योग या सन्यासयोग भी कहा जाता है। ज्ञानयोगी स्वयं को किसी भी कर्म का करता नहीं मानता है। ज्ञान का अर्थ है तात्विक अतीन्द्रीय ज्ञान। यहाँ यह भी बताना ज़रूरी है कि ज्ञान योग और कर्म योग दोनों ही परमात्मा की उपलब्धि  के साधन हैं।जीवन में इन दोनों मार्गों का समन्वय श्रेष्ठ माना जाता है। हमें आत्म ज्ञान की साधना और नि :स्वार्थ सेवा दोनों को अपने जीवन का अंग बनाना चाहिए। 

(४ )मनुष्य कर्म का त्याग कर कर्म के बन्धनों से मुक्त नहीं होता। कर्म के त्याग  मात्र से ही सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती। 

(५ )कोई भी मनुष्य एक क्षण भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता ,क्योंकि प्रकृति के गुणों द्वारा मनुष्यों से परवश की तरह सभी कर्म करवा लिए जाते हैं। यहाँ तक की सांस लेना भी एक कर्म है। खाली दिमाग वैसे भी शैतान का घर कहा गया है। विचार ,शब्द और क्रिया से प्रसूत कर्म का पूर्ण त्याग किसी के लिए भी संभव नहीं है। 

ॐ शान्ति  

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